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________________ मनियों की श्रावश्यकता होती है और जो मनुष्य इतनी ननि करचुके हैं कि विना मनियों के अवजन के गां केवल शब्दों की सहायता में ही उनके गुणों का चिनका ( ध्यान ) कर सकते हैं. उनके लिये अहन्तों की उन तदाकार मूर्तियों का अवलम्बन अनिवार्य नहीं होना । अवलम्बन के मूक्ष्म और स्थूल होने की अपेक्षा मे ही कंवल शब्दों द्वारा हानवाली उपामना मनियों या चित्रों द्वारा हानेवाली उपासना की अपेक्षा, ऊँचे दरज की मानी जाती है क्योंकि वहां मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में दूसरी की अपेक्षा ऊँची माड़ी पर होता है । किन्तु मूनिया तथा चित्रों के द्वारा होने वाली उपामना को नीची श्रेणी की ममझकर हम लोग उसे त्याग नहीं मकने क्योंकि उमी के महार हमें उपरकी सीढ़ी पर पहुंचना है । जो मनुष्य संमार के माया जाल में अन्यन्न फॅमेहुए हैं और जिनके चिन इतने चंचल हैं, कि केवल शब्दों द्वाग परमात्मा के गुणों का विना उनकी जीवन्मुक्त (अहन्त) अवस्था के चित्र और मूर्तियों की महायना के ध्यान करने में असमर्थ हैं, उनके लिये उन वीतराग- मुनियों अथवा चित्रोंकी अत्यन्त आवश्यकता है । जिम प्रकार 'सर्प' इस शब्द के कानों में सुनते ही या अक्षर रूप में नेत्रों के सामने आते
SR No.010097
Book TitleJain Dharm aur Murti Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirdhilal Sethi
PublisherGyanchand Jain Kota
Publication Year1929
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size2 MB
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