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________________ १६ आता उसी प्रकार यदि उन मूर्तियों से भी कोई लाभ नहीं उठाता तो उससे उनकी उपयोगिता कम नहीं होजाती । उन मूर्तियों को जो प्रणामादिक कियाजाता है वह वास्तव में आत्मा के स्वाभाविक गुणों को ( जो उन अर्हन्तों ने प्राप्त कर लिये थे ) ही प्रणामादिक करना है, धातु पापाण को नहीं क्योंकि केवल उन गुम्मों को ही लक्ष करके उन मूर्तियों की स्थापना की गई है। 'अब हम यह विचार करना है कि उपासना मूर्त पदार्थ- जैसे मूर्ति के अवलम्बन के बिना भी हो सकती है या नहीं और यदि हो सकती है तो किसप्रकार ? निस्संदेह मूर्त वस्तु के अबलम्बन के बिना भी उपासना होसकती है और वही उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है जिसको हम श्रीमन नेमिचंद्र सैद्धान्तिक चक्रवर्ति के मंग्रह की निम्नलिखित प्राकृत गाथा से प्रकट कर सकते हैं: - * माहि माह मानितह क्रिवि जेा हाइायगे । ser of a इणमेव परं हवे झाणं | इसका आशय यह है कि न तो कोई उपाय करो, न कुछ और का चितवन को एक मात्र आत्मा
SR No.010097
Book TitleJain Dharm aur Murti Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirdhilal Sethi
PublisherGyanchand Jain Kota
Publication Year1929
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size2 MB
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