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________________ १५ उनकी उन चित्रों पर दृष्टि जापड़ती है उन्हीं महापुरुषों के गुणों के स्मरण में लगजाते हैं और उनके द्वारा उनके चरित्र का भी सुधार होने लग जाता है। ठीक उसीप्रकार की मूर्तियां भी प्रथम तो बनावट में ही निर्बंध, परम वीतरागता सूचक और शांत होती है और उन्हें देखने मात्र से अत्यन्त शांति मिलती तथा आत्मस्वरूप की स्मृति होती है, इसके अलावा उन महान आत्माओं के गुणों की याद दिला (जिनके स्मरण के लिये ही चित्र आदि की तरह वे भी बनाई गई हैं, हमारे विचारों को सुधारती तथा हमारे चरित्र को भी सुन्दर सांच में डाल देती है । हम फौरन विचारने लग जाते हैं कि हे आत्मन ! नेरा स्वरूप तो यह है ! इस भूलकर तू संसार के मायाजाल में और कपयों के फंदे में क्यों फसा हुआ है इत्यादि । इमप्रकार मनुष्य आत्मसुधार मार्ग पर as लगाते हैं और उसका श्रेय निमित्त कारण होने से हम मूर्तियों का देते हैं । किन्तु फिरभी बहुतसे मनुष्य ऐसे होते 'जिन पर उन वीतराग मूर्तियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु इसमें उन मृतियों का कोई दोष नहीं है । जिस प्रकार नदी पार जाने का पुरुष यदि किनारे पर नाव मौजूद होते हुये भी उस में न बैठकर वैसेही अपने प्राण गँवा देता हैं किन्तु इससे उस नाव की उपयोगिता में कोई फर्क नहीं
SR No.010097
Book TitleJain Dharm aur Murti Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirdhilal Sethi
PublisherGyanchand Jain Kota
Publication Year1929
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size2 MB
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