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________________ श्रापनियों मे छुटकारा पान के लिये चौमटऋद्धि . कर्मदहन, तीनलोक आदि के मंडल मंडवा कर उन वीतगग मूर्तियों को रिश्वत देने का ढोंग रचते हैं और जो यह समझने हैं कि कषाय और मिध्यात्व की किंचिनमात्र भी उनके स्वभाव में चाहे कमी न आवे तो भी केवल उनकी बहनों के प्रति भक्ति और पूजा ही उनके कर्मों को नष्ट कर देगी; वे लोग नाम मात्र के जैनी हैं कड़ी के पीटनेवाले हैं और मिथ्यात्व के प्रभाष मे जैनी बनने का ढोंग रचकर जैनधर्म को बदनाम करते हैं। ऐमी उपासना बिलकुल व्यर्थ हानी है और उसके द्वारा उपासना के असली उद्देश्य की प्राप्ति करोड़ों वर्षों में भी नहीं होसकती । सरुची पूजा तो वही है जो हमार श्रादर्शअंहतों- के जैसे गुणों की प्राप्ति के उदृश्य मे कीजाती है । बहुधा बहुत से लोग अंधश्रद्धावश ऐमा भी समझन रहने हैं कि हमारे उपास्य देवों की भक्तिपूर्वक पूजा करने के कारण, उनके प्रसाद से हमेंभी उनके जैसे गुणों की प्रामि हो जायगी तथा हमारे कर्म भी कट जायेंगे किन्तु वास्तव में बात यह है कि उनके गुणों के अनुराग पूर्वक चितवन तथा ममता भाव में ही, न कि उनके प्रसाद मे,हमारी आत्मा पर ऐसा प्रभाव पड़ता है और हमारी प्रात्मिक शक्तियो क्रम २ से विकाम को प्राप्त हो कर वे गुण हममें भी प्रकट होजाते हैं।
SR No.010097
Book TitleJain Dharm aur Murti Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirdhilal Sethi
PublisherGyanchand Jain Kota
Publication Year1929
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size2 MB
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