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________________ का भी हमे तत्काल ही स्मरण होजाना है। इससे यह आशय निकलता है कि अहंत आदि ऐमी महान आत्माएँ हैं जिनमें पात्मा के स्वाभाविक गुण पूर्ण रूप से विकसित होगहैं और उनके गुणों का ध्यान तथा उनके अलौकिक चरित्र का विचार हमें भी अपनी आत्मा और उसके स्वाभाविक गुणों की याद दिलाता है। इसीलिये वे हमारे श्रादर्श हैं और पासीय गुणों के पूर्ण विकास के लिये उसी श्रादर्श को मामन रम्य कर हम अपने चरित्र का गठन करते हैं। किन्तु अपने आदर्श पुरुष के गुणों में भक्ति और अनुराग का होना स्वाभाविक और आवश्यक है क्योंकि विना अनुराग के कभी किमी गुण की प्राप्ति हो ही नहीं सकती । यह सर्वत्र देखा जाता है कि जो मनुष्य जिस गुण से प्रेम करता है वह उस गुणवाले का भी अवश्य प्रेमपूर्वक आदर सत्कार करता है। आदर सत्कार रूप इस प्रवृति का नाम ही पूजा और उपासना है। हमार आदर्श होन से ही अर्हनों में हमारी भक्ति है और वही हम में उनके प्रति आदर सत्कार के भाव पैदा करती है। किन्तु क्या इम उपासना का उद्देश्य यह है कि वे इस उपासना के इछुक हैं और हममे प्रसन्न होकर हमारी इच्छाओं को पूर्ण
SR No.010097
Book TitleJain Dharm aur Murti Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirdhilal Sethi
PublisherGyanchand Jain Kota
Publication Year1929
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size2 MB
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