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________________ जनधर्म । इस अपेक्षासे आत्माको अनित्य भी कहा जा सकता है। किन्तु व्यदृष्टिसे तो आत्मा नित्य ही है। शरीरके खण्डित हो जानेपर आत्मा खण्डित नहीं होता किन्तु शरीरके खण्डित हुए भागमे आत्माप्रदेश विस्ताररूप हो जाते है । यदि खण्डित हुए भागमें आत्माके देश न माने जाये तो शरीरसे कटकर अलग हुए भागमे जो कंपन खा जाता है उसका कोई दूसरा कारण दृष्टिगोचर नहीं होता, योंकि उस भागमे दूसरी आत्मा तो नहीं हो सकता, और विना सात्माके परिस्पन्द नही हो सकता, क्योकि कुछ देरके वाद, जव आत्मदेश सकुच जाते है तो कटे भागमें क्रिया नहीं रहती। अत. शरीरके तो भाग हो जानेपर भी आत्माके दो भाग नहीं होते। अत. आत्मा शरीर परिमाणवाला है, क्योकि मै सुखी हूँ, इत्यादि रूपसे शरीरमें हो आत्माका ग्रहण होता है। __इस प्रकार आत्माको शरीरपरिमाणवाला सिद्ध करके जैनदार्शनिक आत्माके व्यापकत्वका खण्डन करते है । वे कहते है कि यदि आत्मा व्यापक है तो उसमें क्रिया नही हो सकती और क्रियाके बिना वह पुण्य-पापका कर्ता नहीं हो सकता। तथा कर्तृत्वके बिना वन्य और मोक्षको व्यवस्था नहीं बनती। कोस संयुक्त है जैनदर्शन प्रत्येक संसारी आत्माको कर्मोंसे बद्ध मानता है। यह कर्मवन्धन उसके किसी अमुक समयमें नही हुआ, किन्तु अनादिस है। जैसे, खानसे सोना सुमैल ही निकलता है वैसे ही संसारी आत्माएं भा अनादिकालसे कर्मबन्धनमे जकड़े हए ही पाये जाते है । याद आत्माएं अनादिकालसे शद्ध ही हो तो फिर उनके कर्मबन्धन नहीं हो सकता, क्योकि कर्मवन्धनके लिये आन्तरिक अशुद्धिका होना आवश्यक है। उसके विना भी यदि कर्मवन्धन होने लगे तो मुक्त आत्मालाक , 'भी कर्मवन्धनका प्रसंग उपस्थित हो सकता है और ऐसी अवस्था 'मुक्ति के लिये प्रयल करना व्यर्थ हो जायेगा।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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