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________________ सिद्धान्त ५३ सावयव माननेसे उसका भी नाश हो सकता है । इस आपत्तिका उत्तर जैनदर्शन देता है कि जैन दृष्टिसे आत्मा कथंचित् सावयव भी है, किन्तु उसके अवयव घटके अवयवोंकी तरह कारणपूर्वक नही है । अर्थात् घट एक द्रव्य नही है किन्तु अनेक द्रव्य है, क्योकि अनेक परमाणुओं के समूहसे घट बना है और प्रत्येक परमाणु एक एक द्रव्य है । अत घटके अवयव उसके कारणभूत परमाणुभोंसे उत्पन्न हुए है । किन्तु आत्मामें यह बात नही है आत्मा एक अखण्ड और अविनाशी द्रव्य है । वह अनेक द्रव्योके संयोगसे नही बना है । अत घटकी तरह उसके विनाशका प्रसङ्ग उपस्थित नही होता । जैसे आकाश एक सर्वव्यापक अमूर्तिक द्रव्य है, किन्तु उसे भी जैन दर्शनमे अनन्त प्रदेशी माना गया है, क्योकि यदि ऐसा न माना जायेगा तो मथुरा, काशी और कलकत्ता एक प्रदेशवर्ती हो जायेंगे । चूंकि ये भिन्न-भिन्न प्रदेशवर्ती है अत सिद्ध है कि आकाश बहुप्रदेशी भी है । बहुप्रदेशी होनेपर भी न तो आकाशका विनाश ही होता है और न वह अनित्य ही है, उसी तरह आत्माको भी जानना चाहिये । दूसरी आपत्ति यह की जाती है कि यदि आत्मा शरीर प्रमाण है तो बालकक शरीरप्रमाणसे युवा शरीररूप वह कैसे बदल जाता है। यदि वालकके शरीरप्रमाणको छोड़कर वह युवाके शरीरप्रमाण होता है तो शरीरकी तरह आत्मा भी अनित्य ठहरता है । यदि वालकके शरीरप्रमाणको छोड़े विना आत्मा युवा शरीररूप होता है तो यह संभव नही है, क्योकि एक परिमाणको छोड़े बिना दूसरा परिमाण नही हो सकता। इसके सिवा यदि जीव शरीरपरिमाण है तो शरीरके एकाध अंशके कट जानेपर आत्माके भी अमुक भागकी हानि माननी पड़ती है । इसका उत्तर यह है कि आत्मा बालकके शरीरपरिमाणको छोड़कर ही युवा शरीरके परिमाणको धारण करता है । जैसे सर्प अपने फण वगैरहको फैलाकर वडा कर लेता है वैसे ही आत्मा भी संकोच - विस्तार गुणके कारण भिन्न-भिन्न समयमे भिन्न-भिन्न आकारवाला हो जाता
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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