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________________ जैनधर्म 5 . दुखी होती है, मुकुटके उत्पादसे पुत्र प्रसन्न होता है और पूकि राजा तो सुवर्णका इच्छुक है जो कि घट टूटकर मुकुट बन जानेपर भी कायन रहता है अत उसे न गोक होता है और न हप। मत. वस्तु त्रयात्मक (तीनरूप) है।' दूसरा उदाहरण 'पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसन्नतो नोभे तस्मात्तल यात्मकम् ॥६०॥' "जिसने केवल दूध ही खानेका व्रत लिया है, वह दही नहीं खाता । जिसने केवल दही खानेका व्रत लिया है वह दूध नही खाता । और जिसने गोरसमात्र न खानेका व्रत लिया है वह न दूध खाता है और न दही, क्योंकि दूध और दही दोनो गोरसकी दो पर्यायें है अत गोरसत्व दोनोमे है। इससे सिद्ध है कि वस्तु त्रयात्मक-उतादव्यय ध्रौव्यास्मक है। मीमांसाशनके पारगामी महामति कुमारिल भी वस्तुको उत्साद,व्यय और प्रौव्य-स्वरूप मानते है। उन्होने भी उसके समर्थनके लिये स्वामी समन्तभद्रके उक्त दृष्टान्तको ही अपनाया है। वे उसका खुलासा करते हुए लिखते है 'वर्धमानकभंगे च रुचक. क्रियते यदा। तदा पूर्वाधिन. शोक प्रोतिश्चाप्युत्तराधिन.॥२१॥ हेमापिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु ऋयात्मकम् । नोत्पादस्पितिभगानामनावे स्यान्मतित्रयन् ॥२२॥ न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्या विना न माध्यत्व्य तेन सामान्यनित्यता ॥२३॥' -मो० श्लो० वा० । अर्थात्-'जव सुवर्णके प्यालेको तोड़कर उसकी माला वनाई जाती है तव जिसको प्यालेकी जरूरत है, उसको शोक होता है, जिसे मालाकी आवश्यकता है उसे हर्ष होता है और जिसे सुवर्णकी आवश्यकता है उसे न हर्ष होता है और न शोक । अतः वस्तु त्रयात्मक
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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