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________________ सिद्धान्त ७७ होता है, किन्तु उसकी पर्याय उत्पन्न होती और नष्ट होती है और १ F पर्याय चूंकि द्रव्यसे अभिन्न है अत. द्रव्य भी उत्पाद-व्ययशील है। जैन दर्शनके इस सिद्धान्तका प्रतिपादन महर्षि पतञ्जलिने भी । अपने महाभाष्यके पशपशाह्निकमें निम्नलिखित शब्दोमें किया है___"व्य नित्यम्, आकृतिरनित्या। सुवर्ण कयाचिदाकृत्या युक्त पिण्डो भवति,' 'पिण्डाकृतिमुपमृद्य रुचका. क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटका क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिका क्रियन्ते । पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्ड पुनरपरयाऽकृत्या युक्त. सदिरांगारसदृशे कुण्डले भवत । आकृतिरन्या च अन्या च भवति, दुव्यं । पुनस्तदव, आकृत्युपमर्दैन दुव्यमेवावशिष्यते।" अर्थात्-द्रव्य नित्य है और आकार यानी पर्याय अनित्य है। सुवर्ण किसी एक विशिष्ट आकारसे पिण्डरूप होता है। पिण्डरूपका . विनाश करके उससे माला बनाई जाती है। मालाका विनाश करके उससे कड़े बनाये जाते है । कडोंको तोड़कर उससे स्वस्तिक बनाये जाते है। स्वस्तिकोंको गलाकर फिर सुवर्णपिण्ड हो जाता है। उसके अमुक आकारका विनाश करके खदिर अङ्गारके समान दो कुण्डल बना लिये जाते है। इस प्रकार आकार बदलता रहता है परन्तु द्रव्य' वहीं रहता है। आकारके नष्ट होनेपर भी द्रव्य शेष रहता ही है।' इससे द्रव्यकी नित्यता और पर्यायकी अनित्यता प्रमाणित होती है। जैन दर्शन भी ऐसा ही मानता है और इसीसे वह वस्तुका लक्षण उत्पाद-व्यय और प्रौव्य करता है। उसके मतसे तत्त्व त्रयात्मक है। आचार्य समन्तभद्रने दो दृष्टान्त देकर इसी वातको प्रमाणित किया है। आप्तमीमासामे वे लिखते है 'घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य जनो याति सहेतुकम् ॥५६॥ 'एक राजाके एक पुत्र है और एक पुत्री । राजाके पास एक सोनेका घड़ा है । पुत्री उस घटको चाहती है, किन्तु राजपुत्र उस घटको तोडकर उसका मुकुट बनवाना चाहता है। राजा पुत्रकी हठ पूरी करनेके लिये घटको तुड़वाकर उसका मुकुट बनवा देता है। घटके
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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