SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धान्त जव पट लानेको कहते है तो वह पट ही लाता है, घट नही लाता " इससे प्रमाणित है कि घट घट ही है पट नहीं है, और पट पट ही हो५ घट नही है। न घट पट है और न पट घट है, किन्तु है दोनो। परन्तु ५ दोनोंका अस्तित्व अपनी-अपनी मर्यादामे ही सीमित है, उसके वह नहीं है। अत. प्रत्येक वस्तु अपनी मर्यादामे है और उससे बाहर नहीं। है। यदि वस्तुए इस मर्यादाका उल्लघन कर जायें तो फिर घट और र पटकी तो बात ही क्या, सभी वस्तुए सव रूप हो जायेंगी नाच इस तरहसे सकर दोप उपस्थित होगा। मत. प्रत्येक वस्तु स्वरूप कर अपेक्षासे सत् कही जाती है और पररूपकी अपेक्षासे असत् कह जाती है। इसी दृष्टान्तको गुरु शिष्यके संवधिक रूपमें यहां दियजाता है, उससे पाठक और भी अधिक स्पष्ट रूपसे उसे समझ सकेगे। ___गु०-एक मनुष्य अपने सेवकको आज्ञा देता है कि 'घट लामोई तो सेवक तुरन्त घट ले आता है और जब वस्त्र लानेकी आज्ञा देता है। तो वह वस्त्र उठा लाता है। यह तुम व्यवहारमे प्रतिदिन देखते हो। किन्तु क्या कभी तुमने इस बातपर विचार किया कि सुननेवाला' ८1 शब्द सुनकर घट ही क्यों लाता है और वस्त्र शब्द सुनकर वस्त्र ही क्यों लाता है ? शि०---घटको घट कहते है और वस्त्रको वस्त्र कहते है। इसलिये। जिस वस्तुका नाम लिया जाता है, सेवक उसे ही ले आता है। गु०-घटको ही घट क्यों कहते है ? वस्त्रको घट क्यों नह शि०-घटका काम घट ही दे सकता है, वस्त्र नहीं दे सकता। गु०-घटका काम घट ही क्यो देता है, वस्त्र क्यो नहीं देता? शि०-यह तो वस्तुका स्वभाव है, इसमें प्रश्नके लिये स्थान नहीं है। · गुरु-क्या तुम्हारे कहनेका यह अभिप्राय है कि जो स्वभाव घटका है वह वस्त्रका नही, और जो वस्त्रका है वह घटका नहीं?
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy