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________________ जैनधर्म हम प्रकारान्तरस भी धर्मके दो भेद किये जाते है एक साध्यरूप धर्म उसऔर दूसरा साधनरूप धर्म। परमात्मत्व साध्यरूप धर्म है और आचार मल्या चारित्र साधनरूप धर्म है, क्योकि आचार या चारित्रके द्वारा ही है।आत्मा परमात्मा बनता है। अत यहां दोनो ही प्रकारके धर्मोका यह निरूपण किया गया है। २. जैनदर्शनका प्राण पक अनेकान्तवाद ____ ऊपर लिख आये है कि जनविचारका मूल स्याद्वाद या भनेकान्तवाद है। मत. प्रथम उसे समझ लेना आवश्यक है। जैन दृष्टिसे इस विश्वके मूलभूत तत्त्व दो भागोमें विभाजित है एक जीवतत्त्व और दूसरा अजीव या जड़तत्त्व । अजीव या जडतत्त्व भी पाँच भागो मे विभाजित है-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकारा और काल । इस तरह यह ससार इन छ तत्त्वोंसे बना हुआ है। इन होको छै द्रव्य कहते है। इन छै द्रव्योके सिवा संसारमें अन्य कुछ भी """नही है, जो कुछ है, उस सवका समावेश इन्ही छै द्रव्योंमें हो जाता है। गुण, क्रिया, सम्बन्ध आदि जो अन्य तत्त्व दूसरे दार्शनिकोंने माने पायेहै, जैन दृष्टिसे वे सब द्रव्यकी ही अवस्थाएं है, उससे पृथक् नहीं; जल क्योकि जो कुछ सत् है वह सब द्रव्य है। सत् ही द्रव्यका लक्षण है। भार असत् या अभाव नामका कोई स्वतंत्र तत्व जनदर्शनमे नहीं है। किन्तु कहजो सत् है दृष्टिभेदसे वही असत् भी है। न कोई वस्तु केवल सत्स्वरूप जिरही है और न कोई वस्तु केवल असत्स्वरूप ही है। यदि प्रत्येक वस्तुको कहर केवल सत्स्वरूप ही माना जायेगा तो सब वस्तुओके सर्वथा सत्स्वरूप इस होनेसे उन वस्तुओके बीचमे जो अन्तर देखनेमे आता है, उसका लोप बोध हो जायेगा और उसके लोप हो जानेसे सब वस्तुएं सब रूप हो जायेगी। आउदाहरणक लिये-घट (घडा) और पट (कपड़ा) ये दोनों वस्तु नमी है, घट भी वस्तु है और पट भी वस्तु है। किन्तु जब हम किसास जिस घट लानेको कहते है तो वह घट ही लाता है, पट नहीं लाता। और
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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