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________________ जैनधर्म 'हम अपना ज्ञान किसी न किसी पुरुषके द्वारा ही दे सकता है, तथा 'उसका व्याख्यान भी पुरुष ही कर सकता है । किन्तु यदि वह पुरुष 'अल्पज्ञ हुआ या रागद्वेषी हुआ तो उसके व्याख्यानमे भ्रम भी हो सकता "है । अत उसे भी कमसे कम विशिष्ट ज्ञानी तो मानना ही पडता है । यह सब इसलिये किया गया है कि वे धर्म पुरुषकी सर्वज्ञता स्वीकार नहीं करते। उनकी दृष्टिसे पुरुषकी आत्माका इतना विकास नही हो सकता । किन्तु जैनधर्म इस तरहके किसी ईश्वरको सत्तामें विश्वास नही करता । वह जीवात्माका सर्वज्ञ हो सकना स्वीकार करता है । अत जैनवम किसी ईश्वर या किसी स्वयंसिद्ध पुस्तकके द्वारा नही कहा गया है। बल्कि मानवके द्वारा, उस मानवके द्वारा जो कभी हम वही जैसा अल्पज्ञ और रागद्वेषी था किन्तु जिसने अपने पौरुषसे प्रयत्न एकरके अपनी अल्पज्ञता और रागद्वेषके कारणोंसे अपने आत्माको मुक्त कर लिया और इस तरह वह सर्वज्ञ और वीतरागी होकर जिन बन गया, इकहा गया है। अतः 'जिन' हुए उस मानवके अनुभवोंका एसार ही जैनधर्म है । हु अब हम 'धर्म' शब्दके बारेमे विचार करेंगे । धर्मशन्दके दो अर्थ पपाये जाते है – एक, वस्तुके स्वभावको धर्म कहते है जैसे अग्निका च जलाना धर्म है, पानीका शीतलता धर्म है, वायुका बहना धर्म है। आत्माका चैतन्य धर्म है | और दूसरा, आचार या चारित्रको धर्म कहते है । इस दूसरे अर्थको कोई इस प्रकार भी कहते है - जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस - मुक्तिकी प्राप्ति हो उसे धर्म कहते है। चूँकि आचार या चारित्रसे इनकी प्राप्ति होती है इसलिये चारित्र ही धर्म है । इस प्रकार धर्म शब्दसे दो अर्थोका पत्रबोध होता है एक वस्तु स्वभावका और दूसरे चारित्र या इस् वस् आचारका । इनमें से स्वभावरूप धर्म तो क्या जड़ मोर क्या चेतन, दो रभी पदार्थों में पाया जाता है, क्योंकि ससारमे ऐसी कोई वस्तु नही, सत्जसका कोई स्वभाव न हो । किन्तु आचाररूप धर्मं केवल चेतन
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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