SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २. सिद्धान्त १. जैनधर्म क्या है? जैनधर्मके सिद्धान्त जाननेसे पहले यह जान लेना आवश्यक है कि जैनधर्म है क्या? जैनधर्म शब्द दो शब्दोंके मेलसे बना है-एक शब्द है जैन और दूसरा शब्द है 'धर्म'। जैसे विष्णुको देवता माननेवाले वैष्णव और शिवको देवता माननेवाले शैव कहलाते है, और उनके धर्मको वैष्णवधर्म या शवधर्म कहते है। वैसे ही 'जिन' को देवता माननवाले जैन कहलाते है और उनके धर्मको जैनधर्म कहते. है । साधारणतया जैनधर्म' का यही अर्थ समझा जाता है। किन्तु - इसका एक दूसरा अर्थ भी है, जो इस अर्थसे कही महत्त्वपूर्ण है। वह अर्थ है-'जिन' के द्वारा कहा गया धर्म। अर्थात्"जिन' ने जिस धर्मकार कथन किया है, उपदेश किया है वह धर्म है जैनधर्म । शैवधर्म या' वैष्णवधर्ममें यह अर्थ नहीं घटता, क्योंकि शिव या विष्णुने स्वयं किसी धर्मका उपदेश नहीं किया। वे तो देवता माने गये है। और बादम' जब बहुदेवतावादके स्थानमे एकेश्वर भावनाका उदय हुआ तो दोनों ईश्वरके रूप कहलाये। पीछेसे श्रीकृष्णको विष्णुका पूर्णावतार मान लिया गया। उनके भक्तोका धर्म तो मूलमें वेदविहित क्रियानुष्ठान, ही है। किन्तु 'जिन' ईश्वरीय अवतार नही होते, वे तो स्वयं अपने पौरुषके वलपर अपने कामक्रोधादि विकारोंको जीतकर 'जिन' बनते है । 'जिन' शब्दका अर्थ होता है-जीतनेवाला । जिसने अपने आत्मिक विकारोपर पूरी तरहसे विजय प्राप्त कर ली वही 'जिन' है। जो 'जिन' वनते है वे हम प्राणियोमेसे ही वनते है। प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा बन सकता है। जीवात्मा और परमात्मामे इतना ही अन्तर है कि जीवात्मा अशुद्ध होता है, काम-क्रोधादि विकारो और उनके
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy