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________________ जैनधर्म २४ आशागतं प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । तत्कियद् कियदायाति वृथा विपर्यपिता ॥ -गुगभद्र। अर्थ-'प्रत्यक प्राणीका आशारूपी गड्ढा इतना विशाल है कि उसके सामने यह पूरा विश्व भी अणुके तुल्य है। ऐसी स्थितिमें यदि स विश्वका वटवारा किया जाय तो प्रत्येक हिस्समें कितना कितन जायगा। अत विषयोकी चाह व्यर्थ ही है।' हन्दी२५ राग उद जग अन्ध भयो सहहिं सब लोगन लाज गंवाई। सीख विना नर सीखत है विषयादिक सेवनकी सुघराई ।। तापर और रच रसकाव्य, कहा कहिये तिनको निठुराई । अन्ध असूझनकी अखियानमें डारत है रज राम दुहाई ॥ भूधरदा २६ राग उदै भोग भाव लागत सुहावनेसे, विना राग ऐसे लाग जैसे नाग कारे है। राग ही सौ पाग रहे तनमें सदीव जीव, राग गये मावत गिलानि होत न्यारे है। राग सों जगतरीति झूठी सब सांची जान, राग मिटै सझत असार खेल सारे है। रागी विन रागीके विचारमें बडोई भेद, जैसे भटा पत्र काहू काहूको वयारे है ॥ -भूधरदास २७ ज्यो समुद्रमै पवन ते चहुँदिसि उठत तरग । त्यो आकुलता सौं दुखित लहै न समरस रग ॥ -वृन्दावन । २८ चाहत है धन होय किसी विधि तो सब काज सर जियरा जी। गेह चिनाय करूं गहना कुछ, व्याहि सुता सुत वाटिय भाजी॥ चिंतत यो दिन जाहिं चले जम आनि अचानक देत दगा जी। खेलत खेल खिलारि गये रहि जाय रुपी शतरजकी बाजी ॥ -भूषरदास - -
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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