SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५६ जैनधर्म अर्थ-वास्तवमे जीवोंका वध अपना ही वध है और जीवोपर दया अपनेपर ही दया है। इसलिए विषकण्टकके समान हिंसाको दूरसे त्याग देना चाहिये। १३ रायदोसाइदीहि य बहुलिज्जा व जस्स मणसलिल । सोणिय तच्च पिच्छइ ण हु पिच्छइ तस्स विवरीमो ।। -देवसेन। । अर्थ-जिसका मनोजल राग द्वेष आदिसे नही डोलता है, वह ... सात्मतत्त्वका दर्शन करता है और जिसका मन रागद्वेषादिक रूपी हिरोसे डांवाडोल रहता है उसे आत्मतत्वका दर्शन नहीं होता। संस्कृत १४ मापदा कथित. पन्था इन्द्रियाणामसयम । तज्जय. सपदा मागों येनेष्ट तेन गम्यताम् ।। अर्थ- इन्द्रियोंका असयम आपदाओंका-दुखोका मार्ग है। और उन्हे अपन वशमें करना सम्पदाओका--सुखोका मार्ग है। इनमे । जो तुम्हें स्वे, उस पर चलो।' १५ हेयोपादेयविज्ञानं नो चेद् व्यर्थ श्रम श्रुती । --वादीमसिंह। अर्थ-~~यदि शास्त्रोको पढकर हेय और उपादेयका ज्ञान नहीं आ, किसमें आत्माका हित है और किसमें आत्माका अहित है यह मिझ पैदा नहीं हुई, तो श्रुताभ्यासमें परिश्रम करना व्यर्थ ही हुआ।' १६ कोऽन्धो योऽकार्यरत को बधिरो य धुणोति न हितानि । को भूको य काले प्रियाणि वक्तु न जानाति ।। प्रश्नोत्तर रलमाला। अर्थ-'अन्धा कौन है ? जो न करने योग्य बुरे कामोंको करनेमे न रहता है। बहरा कौन है ? जो हितकी वात नहीं सुनता। |गा कौन है ? जो समयपर प्रिय वचन बोलना नहीं जानता।' १७ पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्य नेच्छन्ति मानवाः । फल नेच्छन्ति पापस्य पाप कुर्वन्ति यलतः॥ गुणभद्राचार्य। अर्थ--'मनुष्य पुण्यका फल सुख तो चाहते है किन्तु पुण्य कर्म करना नहीं चाहते। और पापका फल दुख कभी नहीं चाहते, किन्तु रपको बड़े यत्नसे करते है।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy