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________________ जनवर्म चौदहवें मनुका नाम नाभिराय था। इनके समयमे उत्पन्न होने ले वच्चोका नाभिनाल अत्यन्त लम्बा होने लगा तो इन्होने उसको टना बतलाया। इसीलिये इनका नाम नाभि पड़ा। इनकी पत्नीका म मरुदेवी था। इनसे श्रीऋषभदेवका जन्म हुमा । यही ऋषभदेव स युगमें जैनधर्मके आद्य प्रर्वतक हुए। इनके समयमे ही ग्राम नगर सादिकी सुव्यवस्या हुई इन्होने ही लौकिक शास्त्र और लोकव्यवहारकी शिक्षा दी और इन्होने ही उस धर्मकी स्थापना की जिसका दूल अहिंता है। इसीलिये इन्हे आदि ब्रह्मा भी कहा गया है। जिस समय ये गर्भमें थे, उस समय देवतामोने स्वर्णकी वृष्टि की इसलिये इन्हें 'हिरण्यगर्भ" भी कहते है। इनके समयमै प्रजाके सामने जीवनकी समस्या विकट हो गई थी, क्योकि जिन वृक्षोसे लोग अपना जीवन निर्वाह करते आये थे वे लुप्त हो चुके थे और जो नई वनस्पतियाँ पृथ्वीमें उगी थी, उनका उपयोग करना नही जानते थे। तब इन्होंने उन्हें उगे हुए इक्षुदण्डोसे रस निकाल कर खाना सिखलाया। इसलिये इनका वश इक्ष्वाकु वराके नामसे प्रसिद्ध हुआ, और ये उसके आदि पुरुष कहलाये । तया प्रजाको कृषि, मसि, मषी, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन षट्कर्मों से आजीविका करना बतलाया। इसलिये इन्हें प्रजापति गी कहा जाता है। सामाजिक व्यवस्थाको चलानके लिये इन्होने तीन वर्गोकी त्यापना की। जिनको रक्षाका मार दिया १ 'पुरगामपट्टणादी लोयियसत्य च लोयववहारो। धम्मो वि दयामूलो विणिम्मियो आदिवह्मण ।।८०२॥' –त्रि० सा। २"हिरण्यवृष्टिरिष्टाभूद् गर्भपेपि यवत्त्वयि । हिरण्यगर्भ इत्युच्चीवणिर्गीयते त्वतः ॥ २०६॥ आकन्ती रस प्रीत्या वाहुल्पेन त्वयि प्रभो। प्रजा प्रभो यतस्तस्मादिक्ष्वाकुरिति कोयंसे ॥ २१०॥ -स०८, हरि० पु० । ३ 'प्रजापति प्रथमं निजीवियु. शशास कृप्यादिसु कर्मसुप्रजाः -स्वयं स्तो०
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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