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________________ २८२ जैनधर्म 'सेन' और कुछको 'भद्र' नाम दिया, जो मुनि, गाल्मलि महावृक्षक नलसे आये थे, उनमेसे चुछको 'गुणधर' और कुछको 'गुप्त' नाम दिया, जो खण्डकेसर वृक्षोंके मूलते आये थे, उनमेंसे कुछको सिंह और कुछको 'चन्द्र' नाम दिया। . इन नामोंके विषयमें कुछ मतभेद भी है, जिसका उल्लेख भी आचार्य इन्द्रनन्दिने किया है। कुंछके मतसे जो गुहाओंसे आये थे उन्हें नन्दि, • जो अशोकवनसे आये थे उन्हें 'देव', जो पञ्चस्तूपोंसे आये थे उन्हें "सन', जोगाल्मलि वृक्षके मूलसे आये थे उन्हें 'वीर',और जो खण्डकसर 'वृक्षोंके मूलसे आये थे उन्हें 'भद्र' नाम दिया गया। कुछके मतसे गुहावासी नन्दि', अशोकवनते आनेवाले 'देव', पञ्चस्तूपवासी सन, "गाल्मलि वृक्षवाले 'वीर' और खण्डकेसरवाले 'भद्र और सिंह कहलाये। र इन मतभेदोंसे मालूम होता है कि आचार्य इन्द्रनन्दिको भी इस संघभेदका स्पष्ट ज्ञान नहीं था, इसीलिए इस वातका भी पता नहीं चलता कि अमुकको अमुक संज्ञा ही क्यो दी गयी। इन सब संजाओम 'नन्दि, सेन, देव और सिंह नाम ही विशेष परिचित है। भट्टारक' इन्द्रनन्दि आदिने अहवलि आचार्यके द्वारा इन्ही चार संघोंकी स्थापना किये जानेका उल्लेख किया है। १ आचार्य इन्द्रनन्दिने इस विषयमें उक्त च करके एक श्लोक उद्धृत कया है जो इस प्रकार है "अयातो नन्दिवीरी प्रकटगिरिगुहावासतोशोकवाटाद् देवश्चान्योऽपराजित इति यतिपो सेनभद्राहयौ च । पञ्चस्तुप्यासगुप्तौ गुंगवरवृषभ शल्मलीवृक्षमूलानियोती सिंहचन्द्रो प्रथितगुणपणी केतराखण्डपूर्वात् ॥९॥" २ तदेव यतिराजोऽपि सर्वनैमितिकाप्रणी। अहंबलिगुरूचके संघसघट्टन परम् ॥॥ तिहाघो नन्दिरधः सेनसंघो महाप्रभः । देवतघ इति सष्ट स्थानस्थितिविशेषतः ॥७॥ गणगच्छादयस्लेन्यो जाता स्वपरलोत्पदा । न वा भेद कोऽप्यस्ति प्रज्वयादिषु कर्मसु ॥८॥" नीवितार।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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