SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ + L सामाजिक रूप अन्तर पड गया है कि उसे देखनेसे आश्चर्य होता है | पं० बेचरदासजीने लिखा है— २७६ "यह सम्प्रदाय (श्वे० सम्प्रदाय) कटोरा कटिसूत्रवाली मूर्तिको ही पसन्द करता है उसे ही मुक्तिका साधन समझता है । वीतराग संन्यासी - फकीर की प्रतिमाको जैसे किसी बालकको गहनों से लाद दिया जाता है उसी प्रकार आभूषणोंसे श्रृंगारित कर उसकी शोभामे वृद्धि की समझता है । और परमयोगी वर्द्धमान या इतर किसी वीतरागकी मूर्तिको विदेशी पोशाक जाकिट, कालर, घडी वगैरहसे सुसज्जित कर उसका खिलोने जितना भी सोन्दर्य नष्ट करके अपने मानवजन्मकी सफलता समझता' है ।” इस तरह परस्परकी खीचातानीके कारण जैनसंघमे जो भेद पड़ा वह भेद उत्तरोत्तर बढता ही गया और उसीके कारण आगे जाकर दोनों सम्प्रदाय में भी अनेक अवान्तर पन्थ उत्पन्न होते गये । ३ - सम्प्रदाय और पन्य J दिगम्बर और श्वेताम्वर दोनों ही सम्प्रदायों के उपलब्ध साहित्य के आधारसे यह पता चलता है कि विक्रमकी दूसरी शताब्दी में विश् जैनस स्पष्टरूपसे दो भागों में विभाजित हो गया और इस विभागक मूल कारण साधुओंका वस्त्र परिधान था । जो पक्ष साधुओंकी नग्नता' का पक्षपाती था और उसे ही महावीरका मूल आचार मानता था दिगम्बर कहलाया । इसको मूलसघ नामसे भी कहा है । और जो पक्ष वस्त्रपात्रका समर्थन करता था वह श्वेताम्बर कहलाया । दिगम्ब शब्दका अर्थ है - दिशा ही जिसका वस्त्र है, अर्थात् नग्न । और श्वेता म्बर शब्दका अर्थ है - सफेद वस्त्रवाला । इस तरह प्रारम्भ में यद्य साधुओं के वस्त्रपरिधानको लेकर ही संघभेद हुआ किन्तु बादको उस भेदक अन्य भी सामग्री जुटती गयी और धीरे-धीरे दोनों सम्प्रदाय भी अनेक अवान्तर पन्य पैदा हो गये । किन्तु भेदके कारणोपर दृ २. 'जैन साहित्य में विकार'
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy