SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म उपधियोंकी संख्या में जिस क्रमसे वृद्धि हुई उसे भी मुनि कल्याण विजयजीके ही शब्दों में पढे २७६ r "पहले प्रतिव्यक्ति एक ही पात्र रखा जाता था । पर आर्यरक्षित सूरिने वर्षाकालमे एक मात्रक नामक अन्य पात्र रखनेकी जो आज्ञा दे दी थी उसके फलस्वरूप आगे जाकर मात्रक भी एक अवश्य धारणीय. उपकरण हो गया। इसी तरह झोलीमें भिक्षा लानेका रिवाज भी लगभग इसी समय चालू हुआ जिसके कारण पात्रनिमित्तक उपकरणोकी वृद्धि हुई । परिणाम स्वरूप स्थविरोके कुल १४ उपकरणोकी वृद्धि हुई जो इस प्रकार है-- १ पात्र, २ पात्रबन्ध, ३ पात्र स्थापन, ४ पात्र प्रमार्जनिका, ५ पटल, ६ रजस्त्राण, ७ गुच्छक, ८, ९ दो चादरें, १० ऊबी वस्त्र (कम्बल), ११ रजोहरण, १२ मुखपट्टी, १३ मात्रक और १४ चोलपट्टक । यह उपधि अधिक अर्थात् सामान्य मानी गयी और आगे जाकर इसमें जो कुछ उपकरण वढाये गये वे औपग्रहक कहलाये । भौग्रहिक उपधिमे सस्तारक, उत्तरपट्टक, दंडासन और दंड ये खास उल्लेखनीय है । ये सब उपकरण आजकल के श्वेताम्बर जैनमुनि रखते है ।" एक ओर श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इस तरह साधुओोकी उपधिमें वृद्धि होती गयी, दूसरी ओर आचारांग में जो अचेलकताके प्रतिपादक उल्लेख थे उन्हें जिनकल्पीका आचार करार दे दिया गया और जिन कल्पका विच्छेद होने की घोषणा करके महावीरके अचेलक मार्गको उठा देनेका ही प्रयास किया गया। तथा उत्तरकालमें साधुके वस्त्रपात्रक समथन बड़े जोरसे किया गया, यहाँ तक कि नग्न विचरण करनेवाल महावीरके शरीरपर इन्द्रद्वारा देवदूष्य डलवाया गया । जैसा कि पं वंचरदासजीने भी लिखा है १. श्रमण भगवान महावीर । २. इसके लिए पाठकोको लेखकका लिखा हुआ 'भगवान महावीरका अचेल धर्म' नामक ट्रैक्ट देखना चाहिये ।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy