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________________ २५६ । ॥ गया हो जैन कला और पुरातत्त्व शान्त, और प्रसन्न होती है। उसमे मनुष्यहृदयकी विकृतियोंको स्थान, नहीं होता। इससे जन प्रतिमा उसकी मुखमुद्राके ऊपरसे तुरन्त ही पहचानी जा सकती है। खड़ी मूर्तियोंके सुखपर प्रसन्नता और दोनों हाथ निर्जीव जैसे सीधे लटकते हुए होते है। बैठी हुई प्रतिमा ध्यानमुद्रामे पद्मासनसे विराजमान होती है। दोनों हाथ गोंदीमें सरलतासे स्थापित्र। रहते है। २४ तीर्थड्रोके प्रतिमाविधानमे व्यक्तिभेद न होनेसे ठनक आसनके ऊपर अंकित चिह्नोंसे जुदे जुदे तीर्थङ्करोंकी प्रतिमा पहचानी जाती है। दिगम्बर और श्वेताम्बर मूर्तियोंमे भेद और उसके कारणकी, चर्चा इसी पुस्तकके 'संघभेद' शीर्षकमे की गयी है। __ मध्यकालीन जैन मूर्तियोमे बौद्ध प्रथाके समान कपालपर ऊर्णा और मस्तकपर उष्णीष तथा वक्षस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न भी अंकित होने लगा। किन्तु जैन मूर्तियोंकी लाक्षणिक रचनामें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। __ वर्तमानमें सबसे प्राचीन जैन मूर्ति पटनाके लोहनीपुर स्थानसे प्राप्त हुई है। यह मूर्ति नियमसे मौर्य कालकी ह और पटना म्युजियममे रखी हुई है। इसका चमकदार पालिस अभी तक भी ज्योंका त्यो; बना है। लाहोर, मथुरा, लखनऊ, प्रयाग आदिके म्यूजियमोंमे भी अनेक जैन मूर्तियाँ मौजूद है। इनमें से कुछ गुप्तकालीन है। श्री वासुदेव उपाध्यायने लिखा है-मथुरामे २४वे तीर्थङ्कर वर्धमान महावीरकी एक मूर्ति मिली है जो कुमारगुप्तके समयमें तैयार की गयी थी। वास्तवमें मथुरामें जैन मूर्तिकलाको दृष्टिसे भी बहुत काम हुआ है। श्री राय कृष्णदासने लिखा है कि मथुराकी शुंगकालीन कला मुख्यत. जैन सम्प्रदायकी है। ___खण्डगिरि और उदयगिरिमें ई० पू० १८८-३० तककी शंगकालीन मूर्तिशिल्पके अद्भुत चातुर्यके दर्शन होते है । वहाँपर इस कालकी कटी हुई सौके लगभग जैन गुफाएं है जिनमें मतिशिल्प भी है। दक्षिण भारतके अलगामल नामक स्थानमें खुदाईसे जो जैन मूर्तियां १-भारतीय मुर्तिकला पृ० ५९। -
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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