SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५२ जैनधर्म है कि इनके वचनामृतकी वृष्टिसे जगत्‌को खा जानेवाली शून्यवादरूपी अग्नि शान्त हो गयी । वीरसेन ( ई० ७९० - ८२५) आचार्य वीरसेन प्रसिद्ध सिद्धान्त ग्रन्थ पटखण्डागम और कसायपाहुडके मर्मज्ञ थे । उन्होने प्रथम ग्रन्थपर ६२ हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत संस्कृत - मिश्रित घवला नामकी टीका लिखी है । और कसायपाहुड पर २० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर ही स्वर्गवासी हो गये। ये टीकाएँ जैन सिद्धान्त की गहन चर्चाओ से परिपूर्ण है । घवलाकी प्रशस्तिमे उन्हे वैयाकरणोका अधिपति, तार्किकचक्रवर्ती और 'प्रवादी रूपी गजो के लिए सिह समान वतलाया है । जिनसेन ( ई० ८०० - ८८० ) यह वीरसेनके शिष्य थे । इन्होंने गुरुके स्वर्गवासी हो जाने पर जयघवला टीकाको पूरा किया। इन्होने अपनेको 'अद्धिकर्ण' बतलाया है, जिससे प्रतीत होता है कि यह बालवयमें ही दीक्षित हो गये थे । यह बड़े कवि थे । इन्होने अपने नवनकालमें ही कालिदासके मेघदूतको लेकर पार्श्वभ्युदय नामका सुन्दर काव्य रचा था। मेघदूतमें जितने भी पथ है, उनके अन्तिम चरण तथा अन्य चरणोमेंसे भी एक एक, दो दो करके इसके प्रत्येक पद्यमें समाविष्ट कर लिये गये है। इनका एक दूसरा ग्रन्थ महा पुराण है । इन्होने सारे तिरेसठ शलाका पुरुषोंका चरित्र लिखनेकी इच्छासे महापुराण लिखना प्रारम्भ किया। किन्तु इनका भी बीचमें ही स्वर्गवास हो गया । अत उसे इनके शिष्य गुणभद्राचार्यने पूर्ण किया। राजा अमोघवर्ष इनका शिष्य था और इन्हें बहुत मानता था । प्रभाचन्द्र ( ई० सन् की ११वी शती) } आचार्य प्रभाचन्द्र एक बहुत दार्शनिक विद्वान थे। सभी दर्शनो के प्राय सभी मौलिक ग्रन्थोका उन्होने अभ्यास किया था। यह बात उनके रचे हुए न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेय-कमल-मार्तण्ड नामक दार्श · L -
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy