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________________ ४८ जैनधर्म ननेक प्राभृतो की रचना की है जिनमेसे आठ प्रामृत उपलब्ध है। शोधप्राभृतके अन्तकी एक गाथामे इन्होने अपनेको श्रुतकेवली भद्रवाहुका गष्य बतलाया है। श्रवणवेलगोलाके शिलालेखोमें इनकी बडी कीर्ति उतलायी गयी है। 1, उमास्वामी (वि० सं० की ३री शती) यह आचार्य कुन्दकुन्दके शिष्य थे। इन्होने जैन सिद्धान्तको संस्कृत सूत्रोमें निवद्ध करके तत्त्वार्थसूत्र नामक सूत्ररन्थकी रचना की। इनको गृद्धपिच्छाचार्य भी कहते थे। श्रवणबेलगोलाके शिलालेख न० नं० १०८ में लिखा है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्यके पवित्र वंश उमास्वामी मुनि हुए जो सम्पूर्ण पदार्थोके जाननेवाले थे, मुनियोमे श्रेष्ठ थे। उन्होने जिनदेव प्रणीत समस्त गास्त्रोके अर्यको सूत्र रूपमे निवद्ध किया। वेप्राणियो की रक्षामें बड़े सावधान थे। एकबार उन्होंने पिछी न होने पर गृद्धके परोको पीछीके रूपमें धारण किया था, तभी से विद्वान् । उनको गद्धपिच्छाचार्य कहने लगे । साधारणतया दि. जैन मुनि जीवरक्षाके लिए मयूरके पखोकी पीछी रखते है। ' समन्त भद्र (वि० सं० की ३-४थी शती) जैन समाजके प्रभावक आचार्योंमें स्वामी समन्तभद्रका स्थान 'वहुत ऊंचा है। इन्हें जैन गासनका प्रणेता और भावि तीर्थकर तक बतलाया है । अकलंकदेवने अप्टशतीमें, विद्यानन्दने अप्टसहलीम, आचार्य जिनसेनने आदिपुराणमें, जिनमेन सूग्नेि हरिवंगपुराणम, वादिराजसूरिने न्यायविनिश्चय-विवरण और पार्श्वनाथचरितमें, वार नन्दिने चन्द्रप्रभचरितमें, हत्तिमल्लने विक्रान्तकौरव नाटफर्म तथा अन्य अनेक ग्रन्थकारोने भी अपने अपने नन्यके प्रारम्भमें इनको बहुन ही आदरपूर्वक स्मरण किया है। मुनि जीवनमें इन्हें भस्मक व्याधि हो गयी, जो गाते थे वह तत्काल जीर्ण हो जाता था। उसे दूर करना लिए उन्हें कानी या फागीने राजकीय विवाग्यमें पुजारी बनना हा और वर्ग देवपिन नवेद्यका भक्षण करके अपना रोग दूर किया।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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