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________________ २२३२ जनधर्म टपुट ज्ञान बाकी रह गया। फिर चार आचार्य केवल प्रथम आचागिक ज्ञाता हुए और अंग ज्ञान भी नष्ट भ्रष्ट हो गया। इस तरह कालकमसे विच्छिन्न होते होते वीर निर्वाणसे ६८३ वर्ष बीतने पर जब गो और पूर्वोके बचे खुचे ज्ञानके भी लुप्त होनेका प्रसंग उपस्थित आ तब गिरिनार पर्वतपर स्थित आचार्य धरसेनने भूतबलि और ष्पदन्त नामके दो सर्वोत्तम साधुओको अपना शिष्य बनाकर उन्हें बुताभ्यास कराया। इन दोनोने श्रुतका अभ्यास करके पट्खण्डागम हमके सूत्र ग्रन्थकी रचना प्राकृत भापामे की। इसी समयके लगभग णधर नामके आचार्य हुए। उन्होने २३३ गाथाओमे कसायपाहुड कषायप्राभृत ग्रन्थ की रचना की । यह कषायप्राभूत आचार्य रम्परासे आर्यमा और नागहस्ति नामके आचार्योको प्राप्त हुआ। उनसे सीखकर यतिवृषभ नामक आचार्यने उनपर वृत्तिसूत्र रचे, जा कृतमे है और ६००० श्लोक प्रमाण है। इन दोनो महान् ग्रन्थोपर जनेक आचार्योने अनेक टीकाएं रची जो आज उपलब्ध नहीं है। इनक अन्तिम टीकाकार वीरसेनाचार्य हुए। ये बड़े समर्थ विद्वान् थे। इन्होने खण्डागमपर अपनी सुप्रसिद्ध टीका धवला शक स० ७३८ में पूरी की। यह टीका ७२ हजार श्लोक प्रमाण है। दूसरे महान् ग्रन्थ कसायसाहुडपर भी इन्होने टीका लिखी। किन्तु वे उसे बीस हजार श्लोक प्रमाण लिखकर ही स्वर्गवासी हो गये। तब उनके सुयोग्य शिष्य जनसेनाचार्यने ४० हजार प्रमाण और लिखकर शक स० ७५६ में इसे पूरा किया। इस टीकाका नाम ज्यघवला है और वह ६० हजार लोक प्रमाण है। इन दोनों टीकाकी रचना सस्कृत और प्राकृतिक जाम्मिश्रणसे की गयी है। वहभाग प्राकृतमे है। बीच वीचम संस्कृत भी आ जाती है, जैसा कि टीकाकारने उसकी प्रशस्तिम "प्राय प्राकृतभारत्या क्वचित् सस्कृतभित्रया। मणिप्रवालन्यायेन प्रोफ्नोऽय अन्यविस्तर।"
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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