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________________ चारित्र तो ईश्वरको सृष्टिका कर्ता मानता है और न वेदोके प्रामाण्यको है स्वीकार करता है। किन्तु 'जो ईश्वरको सृष्टिका कर्ता नही मानत और न वेदोको प्रमाण मानता है वह नास्तिक है' नास्तिक सन्द५ यह अर्थ किसी भी विचारशील शास्त्रनने नही किया । बल्कि जा परलोक नही मानता, पुण्य पाप नहीं मानता, नरक स्वर्ग नही जानत परमात्माको नहीं मानता वह नास्तिक है यही अर्थ नास्तिक शब्दक, पाया जाता है। इस अर्थकी दृष्टिसे जैनधर्म घोर आस्तिक ही ठहरत है, क्योकि वह परलोक मानता है, आत्माको स्वतत्र द्रव्य मानते है, पुण्य पाप और नरक स्वर्ग मानता है, तथा प्रत्येक आत्मामें पर मात्मा होनेकी शक्ति मानता है । इन सब बातोका विवेचन पहई किया गया है। इन सब मान्यताओके होते हुए जैनधर्मको नास्ति नही कहा जा सकता। जो वैदिक धर्मवाले जैनधर्मको नास्तिक कहः है वे वैदिक धर्मको न माननेके कारण ही ऐसा कहते है। किन्तु ऐसे स्थितिमें तो सभी धर्म परस्परमे एक दूसरेकी दृष्टिसे नास्तिक ठहरेंगे, अत शास्त्रीय दृष्टिसे जैनधर्म परम आस्तिक ठहरता है।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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