SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जनधर्म त जीवोका उर्ध्वगमन मानता है। किन्तु उसने मोक्षस्थानके वन्धमे कोई विचार प्रकट नही किया। वह कहता है कि मुक्त जीव नन्त काल तक ऊपरको चला जाता है, उसका कभी भी अवस्थान ही होता । ऊर्ध्वगमन माननेपर भी क्या मण्डलीको मोक्षस्थानकी न्तान हुई होगी? किन्तु जब उसके तार्किक मस्तिष्कमें यह तर्क पन्न हुगा होगा कि मुक्त जीव ऊपरको जाकरके भी एक निश्चित सानपर ही क्यो रुक जाता है, आगे क्यो नही जाता? तो सम्भवत से इसका कोई समुचित उत्तर न सूना होगा और फलत उसने सदा र्वगमन मान लिया होगा। किन्तु जैनधर्ममें गति और स्थितिमें सहा धर्म और अधर्म नामके द्रव्योको स्वीकार करके इस काका ही सोच्छेद कर दिया गया। यह दोनो द्रव्य समस्त लोकमे व्याप्त है र लोकके ऊपर उसके अन भागमे ही मोक्षस्थान है। गतिमे हायक धर्मद्रव्य वही तक व्याप्त है, आगे नहीं। अत मुक्त जीव हीपर रुक जाता है, आगे नहीं जाता। मुक्त अवस्थाम बिना शरीरके केवल शुद्ध आत्मा मात्र रहता है, पका आकार उसी शरीरके समान होता है जिससे आत्माने मुक्तिलाभ या है। जैसे धूपमे खड़े होनेपर शरीरकी छाया पड़ जाती है ही शरीराकार आत्मा मुक्तावस्थामें होता है जो अमूर्त होनेके रण दिखायी नहीं देता। मुक्त हो जानेके बाद यह आत्मा जीना, रना, वुढ़ापा, रोग, शोक, दुःख, भय वगैरहसे रहित हो जाता है, कि ये चीजे शरीरके साथ सम्वन्ध रखती है और शरीर वहाँ होता ही है । तथा मुक्तपना आत्माकी शुद्ध अवस्थाका ही नामान्तर है, न जवतक आत्मा शुद्ध है तबतक वहाँसे च्युत नही हो सकता। और । अशुद्ध होनेका कोई कारण वहां मौजूद नही रहता अत वहाँसे भी नहीं लौटता, सदा निराकुलतारूप आत्मसुखमे मग्न रहता है। . १०-क्या जैनधर्म नास्तिक है ? जो धर्म ईश्वरको सृष्टिका कर्ता और वेदोको ही प्रमाण मानते वे जैनधर्मकी गणना नास्तिक धर्मोंमे करते है, क्योकि जैनधर्म न
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy