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________________ जैनधर्मं पना सम्बन्ध रखूंगा, उसके बाहरसे खूब लाभ होनेपर भी कभी कोई व्यापार नही करूँगा । ऐसा नियम कर लेनेसे मनुष्यकी तृष्णाका 'त्र सीमित हो जाता है और विदेशी व्यापारका नियमन होनेसे देशकी 'पत्तिका विदेश जाना भी रुक जाता है। ८८ २ - जीवन भरके लिये ली हुई मर्यादाके भीतर भी अपनी वश्यकता और यातायातको दृष्टिमें रखकर कुछ समय के लिये भी क्त क्षेत्रकी मर्यादा लेते रहना चाहिये, कि में इतने समय तक अमुक } मुक स्थान तक ही अपना आना जाना रखूंगा व लेन-देन आदि करूँगा। वं ३ - विना प्रयोजनके दूसरे प्राणियोको पीड़ा देनेवला कोई भी म नही करना चाहिये । ऐसे काम सक्षेपमे पाँच भागोंमे बाँटे गये हैसपोपदेश, हिंसादान, दुश्रुति, अपध्यान और प्रमादचर्या । जो लोग ऐसा वगैरह से आजीविका करते हो उन्हें हिंसा वगैरहका उपदेश नही चाहिये । जैसे, व्याघको यह नही बतलाना चाहिये कि अमुक ज्ञानपर मृग वगैरह वसते हैं । ठग और चोरको यह नही बतलाना हृाहिये कि अमुक जगह ठगई और चोरीका अच्छा अवसर है । तथा हाँ चार जने बैठकर गपशप करते हों वहाँ भी इस तरहकी चर्चा नहीं गुलाना चाहिये १ । जिन चीजोसे दूसरोकी जान ली जा सकती है, T से विष, अस्त्र शस्त्र आदि हिंसाके सावन दूसरोको नही देना चाहिये २ । रहन पुस्तकों या शास्त्रोके सुनने या पढने से मन कलुषित हो, जिनके T नते ही चित्त कामवासना जाग्रत हो, दूसरोंको मार डालनेके संभव पैदा हो, घमंड और अहंकारका भाव हृदयमें उत्पन्न हो, ऐसे अस्त्रों और पुस्तकोंको न स्वयं सुनना चाहिये और न दूसरोको सुनाना ये ३ । अमुकका मरण हो जाय, अमुकको जेलखाना हो जाय, रतमुकके घर चोरी हो जाये, अमुककी स्त्री हर ली जाये, अमुककी मीन जायदाद विक जाये, इत्यादि विचार मनमें नहीं लाना चाहिये ४ | "ना जरूरत के पृथ्वीका खोदना, पानीका बहाना, आगका जलाना, शाका करना तथा वनस्पतिका काटना आदि काम नही करना चाहिये
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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