SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चारित्र १५ दाद हड़प करनेकी कोशिश नही करता । शिकार खेलना तो दू रहा, चित्र वगैरह अंकित जीव जन्तुओका भी छेदन भेदन नहीं करता । परस्त्रीसे रमण करना तो दूर रहा, कन्याके माता पिताक आज्ञा के बिना किसी कन्यासे विवाह भी नही करता । जिस कामक बुरा समझ कर स्वयं छोड़ देता है, दूसरोंसे भी उसे नही कराता संकल्पी हिंसाका त्याग कर देता है। और उतना ही आरम्भ - कृषि वगैरह करता है जितना स्वयं कर सकता है। क्योकि दूसरोसे कराने‍ व्यवहारमे वह अहिंसकपना नही रह सकता, जिसका उसने व्रत लि है । अपनी पत्नी से भी उतना ही भोग करता है, जितना करना शरी और मनके संतापकी शान्तिके लिये आवश्यक है, तथा उसका उद्दे कवल सन्तानोत्पादन ही होता है । सन्तान होनेपर उसे योग्य मो सदाचारी बनाने का पूरा प्रयत्न करता है, क्योंकि योग्य सन्तानव होने पर ही अपनी वृद्धावस्थामे उस पर घरबारका भार सोपक गृहस्थ आत्मोन्नति के मार्गमे लग सकता है । ये सब दर्शनिक श्रावक कर्तव्य है । २ व्रतिक— जिसका सम्यग्दर्शन और पहले कहे गये आट मूलगुण परिपूर्ण होते है तथा जो मायाचारसे या आगामी काल विषय सुखके और भी अधिक प्राप्त होनेकी अभिलाषासे व्रतों का पाल नही करता, वल्कि राग और द्वेषपर विजय पाकर साम्यभाव प्राप् करनेकी इच्छासे व्रतोका पालन करता है उसे व्रतिक श्रावक कहते है. व्रतिक श्रावक पहले बतलाये पाँच अणुव्रतोंका निर्दोष पालन करत है और उन्हें बढाने के लिये नीचे लिखे सात शीलोंका भी पालन करते है । वे सात शील इस प्रकार है -- १ - दिग्व्रत, २ - देशव्रत, ३-अन दण्डविरति, ४ - सामयिक, ५- प्रोषधोपवास, ६ - परिभोग परिमाण और ७ - अतिथिसविभाग | १ - उसे जीवन भरके लिये अपने आने जाने और लेन दे करनेके क्षेत्रकी मर्यादा कर लेनी चाहिये कि इस स्थान तक ही
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy