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________________ चारित्र १४७ सूचना मिलती है कि उसे व्यापारमें बहुत लाभ हुमा है। सूचना पाते ही वह आनन्दमे निमग्न हो जाता है। अब प्रश्न यह है कि तार द्वारा सूचना मिलते ही उसके हृदयमे जो आनन्द हुआ वह कहाँसे आया? क्या वह उस तारके कागजसे उत्पन्न हुआ जिसपर सूचना लिखी थी? नही, क्योंकि यदि उस कागजपर हानिकी सूचना लिखी होती तो वहीं कागज उसी व्यापारीके दुखका कारण बन जाता। शायद आप कहो कि उस तारके कागजपर जो वाक्य लिखे हुए थे उनमे सुख विद्य' ना था। किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योकि यदि उन वाक्योमे सुख है तो जो कोई उन वाक्योको पढे या सुने उन सभीको उससे सुख होना चाहिये, मगर ऐसा नही देखा जाता। शायद कहा जाये कि उन वाक्यों, का सम्बन्ध उसी व्यापारीसे है अत उनसे उसीको सुख होता है दूसरोको. नहीं। किन्तु यदि उस व्यापारीको उस तारकी सत्यतामे सन्देह हो। तो उन वाक्योसे उसे भी तब तक सुख नही होगा जब तक उसका सन्देह, दूर न हो। इसके सिवा एक ही वस्तु किसीके सुखका साधन होती है, और किसीके दुखका साधन होती है। तथा एक ही वस्तु कभी सुखका, साधन होती है और कभी दुखका साधन होती है। जैसे, पुत्र जब तक माता-पिताका आज्ञाकारी रहता है तब तक उनके सुखका साधन होता है और जब वही उद्दण्ड हो जाता है तो दुखका कारण बन जाता है। अत' यदि बाह्य वस्तु सुखस्वरूप होती तो उससे सबको सदा सुख ही होना चाहिये था, किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता। अत: यह मानना पड़ता है कि सुख जीवका ही स्वभाव है, इस लिये वह अन्दरसे ही उत्पन्न होता है। किन्तु बाहरमे जिस वस्तुका सहारा पाकर सुख। उत्पन्न होता है, अज्ञानसे मनुष्य उसे ही सुख समझ बैठता है। परन्तु, वास्तवमे वाहिरी वस्तु न स्वय सुख है और न सुखका साधन ही है। शरीरमें उत्पन्न होनेवाले विकारोकी क्षणिक शान्तिके उपायोंको मनुष्य भ्रमसे सुखका साधन मानता है, किन्तु वास्तवमे वे सुखके साधन नहीं है, बल्कि शारीरिक विकारोके प्रतीकारमात्र है, जैसा कि भर्तृहरिने भी लिखा है
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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