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________________ १४६ जैनधर्म उतना ही अधिक सुखी माना जाता है, उसका उतना ही अधिक आदर होता है। और यह सब देखकर सवलोग, क्या मूर्ख और क्या विद्वान, क्या ग्रामीण और क्या शहरी, वालकसे बूढेतक अर्थ और कामके लिये ही शक्तिभर उद्योग करते है। यदि कोई धर्ममें लगता भी है तो अर्थ और कामके लिये ही लगता है। ऐसी स्थितिमें यदि मनुष्य दुखी न हों तो क्यों न हो? फिर मनुष्योंकी यह अर्थलालसा और कामलालसा केवल उन्हें ही दुखी नही करती बल्कि समाज और राष्ट्र भरको दुःखी बनाती है, क्योकि जो मनुष्य स्वार्थवश धन कमाताहै और उचित अनुचितका विचार नहीं करता वह दूसरोंके कप्टका कारण अवश्य होता है, साथ ही साथ यदि वह दूसरोको कष्ट पहुंचाकर चोरी या छलसे अपनेको धनी बनाता है तो दूसरे चतुर मनुष्य उसका ही अनुकरण करके उसी रीतिसे धनवान बननेकी चेष्टा करते है और इस तरह परस्परमें ही एक दूसरेके द्वारा सताया जाकर समाजका समाज दुःखी हो उठता है । यही वात कामभोगके सम्बन्धमे भी है । अत यदि धर्मके द्वारा अर्थ और कामकी मर्यादा रखी जाय तो वे सुखके साधन हो सकते है, परन्तु धर्मकी मर्यादाके विना वे सुखकी अपेक्षा दुख ही अधिक उत्पन्न करते है। अतः सुखके साथ धर्मका ही घनिष्ठ सम्बन्ध सिद्ध होता है और सुखके साधनोमे धर्म ही प्रधान ठहरता है। तथा शास्त्रोमें जो सुखका विचार किया गया है, उसपर दृष्टि डालने से तो यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है। शास्त्रोम सुखको जीवका स्वभाव बतलाया है, क्योकि सुख जीवके भीतरसे ही प्रकट होता है, बाहर संसारमे कही भी सुखका स्थान नहीं है। यदि हम अपनेसे बाहर अन्य पदार्थोंमें सुखकी खोज करते रहें तो हमें कभी भी सुख नहीं मिल सकता। यह सत्य है कि इन्द्रियोके भोग हमसे बाहर इस संसारमें विद्यमान है, किन्तु उनमेसे कोई भी स्वय सुख नही है । उदाहरणके लिये, एक व्यापारीको तार द्वारा यह
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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