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________________ १११६ जनधर्म बहुत अन्तर है । जो उसे समझ लेगा वह मूर्तिपूजाको व्यर्थं कहनेका साहस नही कर सकता । है जैनधर्ममें पाँच पद बहुत प्रतिष्ठित माने गये है-- अर्हन्त, सिद्ध, लाचार्य, उपाध्याय और साधु । इन्हे पंच परमेष्ठी कहते है । जैनोके गरमपवित्र पंचनमस्कार मत्रमे इन्ही पंचपदों को नमस्कार किया गया है । ये ही पांच पद जैनधर्ममे वंदनीय और पूजनीय है । जो चार घातिया कर्मोको नष्ट करके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप स्वचतुष्टयको प्राप्त कर लेते हैं, उन सरम औदारिक शरीरमे स्थित शुद्ध आत्माको अर्हन्त कहते है, जिनका विशेष वर्णन पहले किया जा चुका है । ये जीवन्मुक्त होते हैं । जो आठों कर्मोंसे और शरीर से भी रहित हो जाते है, लोकालोकके जानने और देखनेवाले, सिद्धालयमें विराजमान उस पुरुषाकार आत्माको सिद्ध कहते है | और यह मुक्त होते है । जो साघु साधुसंघके प्रधान होते है, पांच प्रकारके आचारका स्वयं भी पालन करते है और अपने संघके अन्य साधुओं से भी पालन कराते है, वे आचार्य कहे जाते हैं । जो साघु समस्त शास्त्रोके पारगामी होते है, अन्य साधुओको पढाते है तथा सदा धर्मका उपदेश करनेमें लगे रहते है, उन्हें उपाध्याय कहते है । जो विषयोकी आशाके फन्देसे निकलकर सदा ज्ञान, ध्यान और तपम लीन रहते हैं, जिनके पास न किसी प्रकारकी परिग्रह होती है | ओर न कोई ठगविद्या, मोक्षका साघन करनेवाले उन शान्त, निस्पृही और जितेन्द्रिय मुनिको साघु कहते है । ܢ : इन पाँच परमेष्ठियोमसे अर्हन्त परमेष्ठीको मूर्ति जैनमन्दिरोमे बहुतायत से विराजमान रहती है । यद्यपि वे मूर्तियां जैनोके २४ तीथङ्करोमेसे किसी न किसी तीर्थङ्करकी ही होती है, किन्तु होती अर्हन्त अवस्थाकी ही है, क्योकि तीर्थंडर पदका वास्तविक कार्य घर्मतीर्थं प्रवर्तन है, जो अर्हन्त अवस्थामे ही होता है । तीर्थंकर भी
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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