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________________ सिद्धान्त ११५ जैनधर्मके ये ईश्वर संसारसे कोई सम्बन्ध नही रखते । न सृष्टिके संचालनमे उनका हाथ है, न वे किसीका भला बुरा करते है । न वे किसीके स्तुतिवादसे कभी प्रसन्न होते है और न किसीके निन्दावादसे अप्रसन्न । न उनके पास को ऐसी सांसारिक वस्तु है जिसे हम ऐश्वर्यं या वैभवके नामसे पुकार सके, न वे किसीको उसके अपराधोंका दण्ड देते है । जैनसिद्धान्त के अनुसार सृष्टि स्वयसिद्ध है । जीव अपने अपने कर्मो के अनुसार स्वय ही सुख दुख पाते है। ऐसी अवस्थामें मुक्तात्माओ और महतोको इन सब झंझटोमे पड़नेकी आवश्यकता ही नही है। क्योकि वे कृतकृत्य हो चुके है, उन्हें अब कुछ करना बाकी नही रहा है। सारांश यह है कि जैनधर्ममे ईश्वररूपमे माने हुए अर्हन्तों और मुक्तात्माओका उस ईश्वरत्वसे कोई सम्बन्ध नही है जिसे अन्य लोग ससारके कर्ता हर्ता ईश्वरमें कल्पना किया करते है । उस ईश्वरत्वकी तो जैनदर्शनके विविध ग्रन्थोमें बड़े जोरोंके साथ आलोचना की गई है । और उस दृष्टिसे जैनधर्मको अनीश्वरवादी कहा जा सकता है । उसमे इस तरहके ईश्वरके लिये कोई स्थान नही है । ८ उसकी उपासना क्यों और कैसे ? जैनोंमें मूर्तिपूजाका प्रचलन बहुत प्राचीन है । सम्राट् खारवेलके शिलालेखमें कलिङ्गपर चढाई करके नन्दद्वारा अग्रजिन (श्रीऋषभ - देव ) की मूर्तिको ले जानेका और भगघपर चढाई करके खारवेलके द्वारा उसे प्रत्यावर्तन करके लानेका उल्लेख मिलता है । इससे सिद्ध है कि आजसे लगभग अढाई हजार वर्ष पूर्व राजघरानोंतकमे जैनोके प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेवकी मूर्तिकी पूजा होती थी । स्वामी दयानन्द तो जैनोसे ही मूर्तिपूजाका प्रचलन हुआ मानते है । यों तो भारत के प्राय. सभी प्राचीन धर्मोमे मूर्तिपूजा प्रचलित है, किन्तु जैनमूर्तिके स्वरूप, उसकी पूजाविधि तथा उसके उद्देश्यमे अन्यधर्मोसे
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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