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________________ जैनधर्म पर अपना उतना प्रभाव नही डाल सकेगा जितना रसायनिक सम्मिश्रणके लिये आवश्यक है। अत दो अधिक गुणवालोका ही बन्ध होता है, और बन्धसे स्कन्धोकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकारका वन्ध पुद्गल द्रव्यमे ही समव है अत. बन्ध भी पुद्गलकी पर्याय है। इसी तरह मोटापन, दुबलापन, गोल, तिकोन, चौकोर आदि आकार और टूट-फूट भी मूर्तिकद्रव्यमे ही सभव है। मत. वे भी पुद्गलकी पर्याय है । जैनदृष्टिसे अन्धकार भी वस्तु है, क्योकि वह दिखाई देता है और उसमे तरतमभाव पाया जाता है। जैसे, गाढा अन्धकार, हलका अन्धकार आदि । दूसरे दार्शनिक अन्धकारको केवल प्रकाशका अभाव ही मानते है, किन्तु जैनदार्शनिक उसे केवल अभावमात्र न मानकर प्रकाशकी ही तरह एक भावात्मक चीज मानते है। और जैसे सूर्य, चाँद वगैरहका प्रकाश, जो धूप और चाँदनीक नामसे पुकारा जाता है, पुद्गलकी पर्याय है वैसे ही अन्धकार 'भी पुद्गलको पर्याय है। छाया भी पुद्गलकी पर्याय है, क्योकि किसी मूर्तिमान् वस्तुके द्वारा प्रकाशके रुक जानेपर छाया पड़ती है। . इस प्रकार इन्द्रियोके द्वारा हम जो कुछ देखते है, सूंघते है, छूते है, चखते है और सुनते है वह सब पुद्गल द्रव्यको ही पर्याय है । २. धर्मद्रव्य और ३. अधर्मद्रव्य ।। धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यसे मतलव पुण्य' और पापसे नहीं है, किन्तु ये दोनो भी जीव और पुद्गलकी ही तरह दो स्वतन्त्र द्रव्य है जो जीव और पुद्गलोके चलने और ठहरनेमे सहायक होते है । छ द्रव्योमेसे धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो निष्क्रिय ह, इनमे हलन-चलन नहीं होता, शेष जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य ' सक्रिय है। इन दोनों द्रव्योको जो चलनेमे सहायता करता है वह धर्मद्रव्य है और जो ठहरनेमे सहायता करता है वह अधर्मद्रव्य है । यद्यपि चलने और ठहरनेकी शक्ति तो जीव पुद्गलमें है ही, किन्तु
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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