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________________ सिद्धान्त अपनी असली हालतको छोडकर एक तीसरी हालत हो जाती है । उदाहरण के लिये आक्सीजन और हाइड्रोजन नामक दो हवाएं है ।। ये दोनों जब परस्परमें मिलती है तो पानीरूप हो जाती है । इसी तरह कपूर, पीपरमेण्ट और सत अजवायन परस्परमें मिलकर एक द्रव औषधीका रूप धारण कर लेते है । यह बन्ध है । यदि ऐसा न माना जाये तो जिस तरह वस्त्रमे रंग-बिरंगे धागोका सयोग होनेपर भी सब धागे अलग अलग ही रहते हैं, एकका दूसरेपर कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नही होता, उसी तरह यदि परमाणुओंका भी केवल सयोगमात्र ही माना जाये और वन्घविशेष न माना जाये तो उनके संयोगसे स्थिर स्थूल वस्तुकी उत्पत्ति नही हो सकती, क्योंकि बन्धमे जो रसायनिक सम्मिश्रण होता है, केवल संयोगमें वह संभव नही है । और रसायनिक मणके बिना tara उत्पन्न नही हो सकता । इसीलिये जैन दशनमें वन्वके स्वरूपका विश्लेषण बड़ी बारीकी से किया गया है । - उसमे बतलाया है कि स्निग्ध और रूक्ष गुणके निमित्तसे ही परमाणुओं का। वन्ध होता है । परमाणुमे अन्य भी अनेक गुण है, किन्तु वन्ध करानेमे ' कारण केवल दो ही गुण है- स्निग्धता - चिक्कणता और रूक्षता-रूखापना | स्निग्ध गुणवाले परमाणुओका भी बन्ध होता है, रूक्षगुणवाले' परमाणुओंका भी बन्ध होता है और स्निग्ध रूक्षगुणवाले परमाणुओका भी वन्ध होता है । किन्तु जघन्य गुणवालोका वन्घ नही होता और न समान गुणवालों का ही बन्ध होता है, क्योकि इस प्रकारके गुणवाले परमाणु यद्यपि परस्परमें मिल सकते है किन्तु स्कन्धको उत्पन्न नही कर सकते । मत. दो अधिक गुणवालोका ही परस्परसे वन्ध हो सकता है; क्योंकि अधिक गुणवाला परमाणु अपनेसे दो कम गुणवाले परमाणुसे मिलकर एक तीसरी अवस्था धारण करता है, इसीका नाम वन्व है । यदि दोसे अधिक या दोसे कम गुणवालोका भी बन्ध मान लिया जाय तो अधिक विषमता हो जानेके कारण अधिक गुणवाला कम गुणवालोको अपने में मिला लेगा, किन्तु कम गुणवाला अधिक गुणवाले - 1 1 ะ ६१
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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