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________________ अन्त में आचार्यप्रवर ने अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा-आध अध्ययन का क्षेत्र बहुत विशाल बनता जा रहा है। प्रतिवर्ष अनेको शोषपत्र हमारे सामने आते हैं। फिर भी अभी तक अगणित ऐसे विषय पछते पड़े है जिनपर अनेकों शोष पच तेयार किये जा सकते हैं। इस दृष्टि से परिषद् का यह कार्यक्रम काफी उपयोगी है। इसमें जहां तक एक व्यक्ति का शोध-प्रबन्ध अनेक व्यक्तियों के लिए शोध का पथ प्रशस्त करता है वहां पाठक को अपने शोध में परिमार्जन की प्रेरणा तथा श्रोताओं को भुताराधना का विशेष अवसर देता है। इसलिये इस अधिवेशन का होना परम प्रसन्नता का विषय है। किन्तु, साथ ही कुछ खेद भी है कि अभी तक जेनों का ऐसा कोई भी ठोस एवं सुदृढ़ मंच नहीं बन पाया है जिसकी आवाज सर्वत्र समान रूप से पहुंच सके। अतः इसे मैं बहुत कमी और अखरने जैसी बात मानता हूँ। अपेक्षा है, सभी जैन बन्धु सम्मिलित रूप से एक ऐसा प्रयोग जन-साधारण के सम्मुख प्रस्तुत करें जिससे विद्वानों को प्रोत्साहन के साथ-साथ जैन-संस्कृति, कला, इतिहास एवं भाषा सम्बन्धी अनेक गुप्त रहस्यों को प्रकाश में आने का सुअवसर मिलेगा। __ अन्त में संयोजक द्वारा आभार प्रदर्शित करने के बाद कार्यक्रम की समाप्ति की गई। रात्रिकालीन अन्तरंग अधिवेशन रात्रि में 'लाल कोटड़ी के पण्डाल में आचार्यश्री के सान्निध्य में 'जैन दर्शन एवं संस्कृति परिषद्' का द्वितीय अन्तरंग अधिवेशन भाषण गोष्ठी के रूप में रखा गया। सर्वप्रथम कमला-विमला बहिनों द्वारा मधुर गान गाये जाने के बाद कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। भी इन्द्रचन्द्रजी शास्त्री ने 'संस्कृति के भूत' विषय पर अपने विचार व्यक्त किये। (यह भाषण निबंध रूप में इसी रिपोर्ट के साथ प्रकाशित किया जा रहा है।) गजेन ने 'राजस्थान में जैन धर्म विषय पर अपने विचार रखते हुए कहा-राजस्थान में जैन धर्म का प्रचार सबसे अधिक ८ वीं शती में हुआ। यहाँ पर हरिमद, हेमचन्द्र जैसे अनेक बड़े-बड़े आचार्य हुए जिन्होने समाज को नैतिकता या हृदयग्राही उपदेश दिया, लाखो व्यक्तियों को जैन धर्म से प्रभा
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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