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________________ [ १५ ] बौद्ध विद्वान वर्तमान जैन परम्परा में प्रचलित गातपुत्त तथा नायपुत का . हिन्दी रूपान्तर शातपुत्र तथा शातपुत्र के समान ही नाथपुत्त या नाटपुत्त का भी शात् पुत्र अर्थ करते है। इस 'शात' शब्द के आधार पर ही वे महावीर का सम्बन्ध विहार के भूमिहारों की 'जथरिया' जाति से जोड़ते हैं। जैन भी इसी शब्द के आधार पर भगवान महावीर को शातकुलोत्पन्न मानते है। लेकिन 'नाथ' 'नात' और 'नाय' का अर्थ अभीभी चिन्तनीय बन रहा है। __आचार्यश्री तुलसी और मुनिश्री नयमलजी टमकोर द्वारा लिखित 'भगवान् महावीर शातपुत्र थे या नागपुत्र ?' शीर्षक लेख से संकेत मिलता है कि उक्त शात या शात दोनों शब्द यथार्थ नहीं है। उसके अनुसार महावीर का कुल 'नाग' होना चाहिये। ‘णाय' की संस्कृत छाया सात ओर नाग दोनों हो सकती है। आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य, जिसमें चूर्णियों का स्थान सर्वप्राचीन तथा प्रमुख रहा है, में हमें शात या णायपुत्त ही मिलता है। टीकाकाल में इसके अर्थ का भ्रम हुआ है। लेकिन सर्वप्रथम टीकाकार श्री अभयदेवसूरिने 'णाय' का अर्थ 'नाग' भी किया है। उन्होंने औपपातिक सूत्र १४ की वृत्ति में नाय का अर्थ 'शात' (इक्ष्वाकुवंश की एक शाखा) अथवा 'नाग' (नागवंशी) किया है। इसी आगम के २७वें सूत्र की वृत्ति में उन्होने 'णाय' का मुख्य अर्थ नागवंशी' और गौण अर्थ 'शातवंशी' किया है। इतिहासज्ञों की दृष्टि में 'ज्ञात' नाम का कोई प्रसिद्ध वंश नहीं हुआ है। 'नाग' वंश बहुत प्रसिद्ध रहा है। भगवान् महावीर के युग में 'नाग' लोग वेशाली या उसके आसपास रहते थे। प्रश्न यह होता है कि यदि भगवान् महावीर को नागवंशी मानें तो जैनागमों में प्रयुक्त नात या गात्त तथा बौद्ध साहित्य में प्रयुक्त 'नाथ' शब्द कैसे संगत हो सकते हैं ? प्रश्न सहज है। प्रश्न का समाधान सहज न भी हों पर होता अवश्य है। हम जैनागमों के शब्द प्रयोग को ध्यान से पढ़ते हैं तो पता चलता है कि उनमें 'त' का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। अनेक वर्षों के स्थान में 'नकार' का आदेश हुआ है। जैसे:-पत्तोवग-पत्तोवते (स्थानांग १२८) सब्बाओ-सव्वातो (स्थानांग ३०६) रसायणे-रसात्तणे (स्था० ६११ सयं-सतं (स्था० ११३)। इसी प्रकार संभव है, बौद्ध साहित्य में 'ग' के स्थान पर 'थ' प्रयुक्त हुआ हो। दूसरी दृष्टि से देखें तो पता चलता है कि मागधी भाषा के अनुसार सात
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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