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________________ स्वभाव रहित होता है। इन्द्रमान की दृष्टि होती है जो हम परिकल्पित करते' है। कुन्दकुन्द ने देखा व्यार्थी परमाथीं तो है, पर हमखास्यानहीं कर सकते। नयों का विकास हुवा, यह साथ में हुबा। वह क्यों हुमा ! आखिर जितने आए समावेश हो गये। यह सम्पम् दर्शन की देन है। जैसे पुनर्जन्म, मात्मा, मुक्ति आदि, यानि जहाँ थोड़ा मी संशय रहे उसे हम सम्यम्-दर्शन की इक्ति में डाल देते हैं। शान तीन है- सम्यगशान, मतिज्ञान और प्रतज्ञान। मविज्ञान के बापार पर हम बास वस्तु को देख सकते है। आक्षेप होने लगा। जेसी वस्तु रहेंगी वेसा ही तो मतिज्ञान का विश्लेषण हो सकता है। बुद्ध ने कहा-चस्व का जो स्वमाव है उसे हम नित्य क्यो कहें १ मम्यग् दर्शन से दृष्टि मिलती है। कब है, हम जानते नहीं-एक अशान की बात हुई। सर्वथा अतीत है तो वर्तमान क्या है ? भविष्य क्या है ? वर्तमान किसको कहेंगे? जेनों ने कहा-क्षणिक वस्त है उसमें कार्य की क्षमता न रहे तो वर्तमान बस्वतः वर्तमान में आ ही नहीं सकता। वेदान्त ने कहा--जो वस्तु शाश्वत है उसीको वस्तु का स्वरूप माने । बौद्ध ने कहा-जो अनित्य, है वही वस्तु का स्वरूप है। जेनों का कहना है कि जितने भी दर्शन है उसमें साम्य ढूंढना। स्याद्वाद, बनेकान्तवाद आदि के लिये जैनो का मतिज्ञान जो है उसके आधार पर कहते हैं। वस्तुतः देखा जाए तो दर्शन की पृष्ठभूमि के आधार पर ही शान का विकास हुआ है। ___ श्रुतज्ञान-भुत अनन्त है। प्रश्न है-जैन धर्म को केन्द्र में रखकर विश्व की कल्पना करें कि विश्व क्या है ? यह मति हमें आ गयी जिससे प्रत्येक वैज्ञानिक ढंग में प्रवेश हो सकते हैं। समावेश करने का पथ जैनों ने प्रशस्त बना दिया है। जेन इन तीनों के समावेश से विश्व के सारे विषयों को समाहित करना चाहते हैं। उपरोक्त तीनों शान में जितने भी शास्त्र है सब समाहित हो सकते हैं और किया भी है। भ्यान, तप, स्वाध्याय आदि ये सारे इसीके ही रूप है। संयम का विकास किया जाए। चरित्र भी शास्त्रों में ध्यान की अवस्था में आता है। ध्यान का विषय क्या है? जो विघ्न मानने लगे तो परन्त अपनी मूर्ति की उत्पत्ति हो गई। बुद्ध मूर्ति पूजा नहीं करते थे लेकिन बौद्ध धर्म में ध्यान प्रतिमा थी। एक भी आधार लीजिये, अपने चित को उसमें स्थिर कीजिए। वास्तव में देखा जाए तो चित की स्थिरता के लिए ही मूर्ति की उत्पत्ति हुई है। धीरे-धीरे मूर्ति की पूजा होनी भी शुरू हो गई, तप मी शुरु हो गया।
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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