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________________ [१०] इन तीन तथ्यों के आधार पर ही बोलना चाहूँगा। मैं यह देखता हूँ कि फेन धर्म में वर्तमान में जो तत्व विकसित हुए हैं, संस्कृति की जो न रही है वह इन तीनों तथ्यों को केन्द्र में रखने से ही हुई है। सम्यम् दर्शन-तत्त्वार्थ-दर्शन अर्थात् तत्त्वार्थ में भदा । श्रद्धा का सम्बन्ध हृदय से जुड़ा हुआ है। भद्धा के विषय, जोव-खजीव, पदार्थ आदि क्या है ये सब बताने बाले बहुत हैं। जैन जीव, द्रव्य, संवर आदि को मानता है। एक बात है इन तत्वों को श्रद्धा का रूप दिया गया है पर विज्ञान उसे इस रूप में नहीं लेता ! सम्यम् दर्शन ही श्रद्धा है। कुछ ऐसे तथ्य हैं कि म० महावीर के समय कुद्ध जोब को नहीं मानते थे, इस प्रकार सम्यग् दर्शन को मिथ्या दृष्टि भी कहते है । बुद्ध ने कहा-सम्बग् दृष्टि है, पर सम्यग्दृष्टि का विषय हैतत्त्व | हम देखें दर्शन क्या है ? बुद्ध ने कहा- मध्यमा प्रतिपद है वही दर्शन है। वास्तव में हम कार्य-च -कारण के आधार पर ही विश्व की व्याख्या कर सकते है । जेनों ने क्या किया- द्रव्यार्थ व परमार्थ- इन दो तत्वों का निर्माण किया । इनका समन्वय करने के लिये द्रव्यार्थी और परमार्थी का आधार लिया गया। ये दो दृष्टियाँ प्राचीन से प्राचीन आगमों में मिलती हैं । बुद्ध ने इन दो दृष्टियों की जगह एक ही तत्व दिया। संसार की उत्पत्ति कहाँ है ? तीनों अभिधा में पहुँचे । द्रव्यार्थी परमार्थी दो दृष्टि रही उधर प्रतिसंवाद की दृष्टि रही। जैसे हमारे सात तस्त्र हैं और उन्हीं के मुख्य तीनचार अर्थ है-दुःख, दुःख के कारण, दुःखों से मुक्ति और मोक्ष । इनका दंग दूसरा है। सम्यग्दृष्टि प्रतिसंवाद की दृष्टि है। विज्ञान के आधार पर उन्होने यह दृष्टि दी है। द्रव्यार्थी परमार्थी के विकास के बाद जब कुन्दकुन्द तक पहुँचे को कुन्दकुन्द ने एक बड़ी चीज दी। मैं यह नहीं कहता कि वह कुन्द कुन्द की नई सूम थी, जो पृष्ठभूमि बौद्ध दर्शन को मिली थी । बुद्ध ने मध्यमा प्रतिपद का निर्माण किया तथा एक तरफ शाश्वत उच्छेदवाद था । इस तरह दोनों के मार्गों को छोड़कर मध्यम मार्ग का निर्माण किया गया। अर्थात् द्रव्यार्थी परमार्थी का मेल करके समन्वय कर दिया गया । एक विचार आया हम किसी को नहीं मानते और शून्यवाद पर आ जाएं। दूसरा प्रश्न है ग्राह्य की कल्पना है वह क्या तत्त्व एक है ? मेरे ख्याल से परतंत्र, परमार्थ ये परिकल्पित तत्व होते हैं। जो शाश्वत स्वभाव है वह परमार्थ है। परतंत्र का अर्थ है-कारण से उत्पन्न । कार्य-कारण 1 में जो बद्ध है वह परतंत्र है, वह स्व स्वरूप नहीं रखता । परतंत्र जो है वह
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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