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________________ [ ११२ ] चार भूतों से मिलकर मनुष्य बना है। जब वह मरता है तो उसमें का भूतांश भूतों में मिल जाता है, इन्द्रियां आकाश में मिल जाती हैं। मरे हुए मनुष्य को जब चार आदमी अर्थी पर सुलाकर उसका गुण-गान करते हुए ले जाते हैं तब उसकी अस्थि सफेद हो जाती है और आहुति जल जाती है । दान का पागलपन मूर्खों ने उत्पन्न किया है। आस्तिकवाद का कथन करने वाले झूठ भाषण करते हैं, व्यर्थ ही बड़-बड़ करते हैं। अक्लमंद और मूर्ख दोनों का ही के बाद उच्छेद हो जाता है, कुछ भी अवशेष नहीं रहता । केशकम्बली के इस मत को उच्छेदबाद कहा गया । यह विचारों से पक्का नास्तिक होने पर भी साधु वेष में रहता था । उच्छेदवाद और अक्रियावाद ये दोनों लगभग समान हैं। इन्हें अनात्मवादी या नास्तिक भी कहा जा सकता है । मृत्यु दशाश्रुत स्कन्ध (estदशा) में अक्रियावाद का वर्णन इस प्रकार है " नास्तिकवादी, नास्तिकप्रज्ञ, नास्तिकदृष्टि, नो सम्यग्वादी, नो नित्यवादी - उच्छेदवादी, नो परलोकवादी - ये अक्रियावादी हैं । इनके अनुसार इहलोक नहीं है, परलोक नहीं है, माता नहीं है, पिता नहीं है, अरिहन्त नहीं हैं, चक्रवर्ती नहीं है, बलदेव नहीं है, वासुदेव नहीं है, नरक नहीं है, नैरयिक नहीं सुचीर्ण कर्म का अच्छा फल कल्याण और पाप अफल है, सुकृत और दुष्कृत के फल में अन्तर नहीं है, नहीं होता, दुष्चीर्ण-कर्म का अलग फल नहीं होता, है, पुनर्जन्म नहीं है, मोक्ष नहीं है । सूत्रकृतांग में अक्रियाबाद के कई मतवादों का वर्णन है । वहाँ आत्मवाद, आत्म-त्ववाद, मायावाद, वन्ध्यवाद, नियतिवाद, इन सबको अक्रियावाद कहा गया है। नियतिवाद की चर्चा भगवती (१५) और उपासकदशा (७) में भी है । (४) चौथे संघ का आचार्य प्रकुध कात्यायन था । उसकी मान्यता थी कि सातों पदार्थ न किसी ने किए, न करवाए। वे वन्ध्य, कूटस्थ तथा खंभे के समान अचल हैं। वे हिलते नहीं, बदलते नहीं, आपस में कष्टदायक नहीं होते और न एक दूसरे को सुख-दुःख देने में समर्थ है। पृथ्वी, अप, तेज, वायु, सुख-दुःख तथा जीव ये ही सात पदार्थ हैं। इनमें मरने वाला, सुनने वाला, कहने वाला, जानने वाला, जनाने वाला कोई नहीं। जो तेज शस्त्रों से दूसरों के सिर काटता है, वह खून नहीं करता। सिर्फ उसका शस्त्र इन सात पदार्थों के अवकाश में घुसता है । यद्यपि इसने प्वां पदार्थ स्वीकार नहीं किया है, लेकिन फिर भी प्रकारान्तर से आकाश तत्त्व को अवश्य स्थान दिया है, जिसे वह
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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