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________________ भगवान् महावीर कालीन धार्मिक परम्पराएं साध्वीश्री यशोधरा] मानव प्रकृति का यह विचित्र रहस्य है कि जब उसके सामने विरोधी विचार आते हैं, विचारों में संघर्ष उत्पन्न होता है। परिणामतः चिनगारी के रूप में नई मान्यताएँ जन्म पाती हैं और वाद-प्रतिवादों के कोलाहल से मानस भर जाता है। यह क्रम आज से ही नहीं इतिहास इसे सदा दोहराता आया है। आज से २५०० वर्ष पूर्व का इतिहास इसका साक्षी है। भगवान महावीर का युग धार्मिक मतवादों और कर्मकाण्डों से संकुल था। बौद्ध साहित्य के अनुसार उस समय ६३ श्रमण सम्प्रदाय' विद्यमान थे। जैन साहित्य में तीन सौ तिरेसठ धर्म मतवादों का उल्लेख मिलता है। इनके भेदोपभेद की शास्त्रों में विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। उस समय ये सब वट-शाखा की तरह विस्तार पा रहे थे। संक्षेप में सारे सम्प्रदाय ४ वर्गों में समाते थे। भगवान् ने उन्हें चार समवसरण कहा है-- (१)-क्रियावादी (२)-अक्रियावादी (३)--विनयवादी-(४)अशानवादी। यह उल्लेख आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती, समवायांग, नन्दी आदि सूत्रों में भी उपलब्ध होता है। बौद्ध साहित्य भी संक्षिप्त दृष्टि से छह श्रमण सम्प्रदायों का उल्लेख करता है। जेन ग्रन्थों के समान ही बौद्ध ग्रन्थों में भी तात्कालिक समाज और धर्म का चित्रण मिलता है। बुद्ध के समकालीन इन छह श्रमण सम्प्रदायों के छ तीर्थकरों का उल्लेख करते हुए स्थान-स्थान पर उनके धार्मिक विश्वासों पर प्रकाश डाला गया है। वे छह तीर्थकर निम्नलिखित थे (१)-पूर्ण काश्यप (अक्रियावादी) (२)-मंखलिगोशाल (देववादी) (३)-अजित केशकम्बली (जड़वादी-उच्छेदवादी) १-याणि च वीणि याणि च सहि। सु० नि० ( समियसुत्त)। २-असीय सयं-सू० नि० ११८ गा। ३-स्थानांग सू०४१४३४५ ४-वी. नि० २ सा० सु० (सामञ्जफलमुत्त)
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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