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________________ [ १०६ ] बक्ता प्रसनालिका से बाहर विदिशा से बोलता है, तब उसे एक समय विदिशा में आने के लिए, द्वितीय समय असनालिका में प्रवेश करते समय और शेष तीन समय पूर्व विहित प्रक्रिया में लग जाते हैं। इस प्रकार अधिक से अधिक पाँच समय और कम से कम तीन समय में तीव्र प्रयल से प्रेरित शब्द सम्पूर्ण लोक को व्याप्त कर लेते हैं। विशेषावश्यक भाष्य का यह प्रतिपादन कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि वसनालिका से बाहर बोलने वालों के शब्द पहले त्रसनालिका के अन्दर प्रवेश करते हैं फिर उनका समग्र लोक में विस्तार होता है। पर यह क्यों ? जब कि शब्द वर्गणा का स्वभाव समग्र लोक में फेलने का है तब बाहर मुक्त शब्द वगणाएँ असनालिका के अन्दर प्रवेश पाने की चेष्टा क्यों करती है ? जैन दर्शन का गत्यात्मक चिन्तन आधुनिक विज्ञान से विरुद्ध पड़ता है। क्योंकि विज्ञान की दृष्टि से शब्द की गति बहुत ही मन्द है। जब कि जैन साहित्य की दृष्टि से गति बहुत तीव्र है। लेकिन गहराई से चिन्तन करने पर यह विरोध भी पट जाता है। विशान में शब्द गति की सुनाई देने के अनुपात से मापी गई है। शब्द जहाँ से छोड़ा जाता है, उन्हें कानों तक पहुँचने में कितना समय लगता है और कितनी दूरी से वह शब्द पहुँचा है-इन सबको गुणों के आधार पर फलित करते हैं। जैन दृष्टि से यद्यपि शब्द प्रथम समय में ही लोकान्त तक पहुंच सकता है, लेकिन कान कभी किसी भी शब्द को अन्तर मुहूर्त से पहले ग्रहण करने की क्षमता नहीं रखते। बारह' योजन से अधिक दूरी का शब्द सुन नहीं सकते। जैन दर्शन का अन्तर मुहूर्त और विज्ञान की दृष्टि से प्रति घण्टा ११०० माइल की गति में बहुत अन्तर नहीं रह जाता । विज्ञान में भी यह ११०० माइल की गति केवल हवा के माध्यम से है। दूसरे अन्य माध्यम में गति और भी तेज हो जाती है। पृथ्वी, लोहे और कांच में ध्वनि बहुत ही तीव्रता से चलती है। समुद्र के ऊपरी सतह पर बोले जाने वाले शब्द तह तक बहुत ही जल्दी पहुंच जाते हैं। इससे प्रमाणित होता है कि ध्वनि की तरंगों में चलने की क्षमता तो है पर उसकी गति माध्यम की कुशलता पर निर्भर करती है। माध्यम यदि योग्य होता है तो गति तेज हो जाती है, अन्यथा मन्द। आज विज्ञान में वैज्ञानिक साधनों के आधार पर ध्वनि को पकड़ कर उसे सहसों वर्षों तक जीवित रखा जा सकता है। जैन दर्शन मानता है कि प्रत्येक १-विशेषा० आ० ३८
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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