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________________ जैन-भक्तिके अंग मंगलके भेद और उनकी परिभाषा , मंगल के छह भेद माने गये हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । पंचपरमेष्ठियों के नाम लेनेको नाम-मंगल कहते हैं । सहस्रनाम नाम-मंगल में ही शामिल हैं । तदाकार ( मूर्ति, विम्ब ) और अतदाकार ( भावरूपसे ), दोनों ही रूपोंमें स्थापित किये गये भगवान्‌को स्तुति आदि करना स्थापना - मंगल है | तीर्थ-क्षेत्रोंकी भक्तिको क्षेत्र - मंगल कहते हैं । भगवान् के विविध कार्योंसे पवित्र हुए Front स्मृति में पूजा आदि करना और महोत्सव मनाना काल-मंगल है | नन्दीश्रद्वीप सम्बन्धी पर्व इसी में शामिल हैं । कर्म-मलसे रहित हुई शुद्ध आत्माका चिन्तवन करना, भाव- मंगल कहलाता है । भगवान्‌की शुद्ध आत्माके ध्यान करनेसे ध्याताकी आत्मा भी शुद्ध और निर्मल हो जाती है । समस्त मल गल जाते हैं, और अनन्त सुख प्राप्त होता है । अत: भाव- मंगल ही सर्व श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है । २ मंगलका प्रयोजन ५१ मंगलके प्रयोजनपर विचार करते हुए आचार्य यतिवृषभने लिखा है, " शास्त्र के आदिमें मंगलके पढ़नेसे, शिष्य शास्त्रके पारगामी होते हैं, मध्यमें मंगलके उच्चारणसे विद्याको निर्विघ्न प्राप्ति होती है और अन्तमें मंगलके पढ़ने से विद्याका फल मिलता है ।" कार्य निर्विघ्न रूपसे समाप्त हो, यह ही मंगलका मुख्य प्रयोजन है । आचार्य यतिवृषभने लिखा है, " शास्त्रोंके आदि, मध्य और अन्त में किया गया जिन स्तोत्ररूप-मंगलका उच्चारण सम्पूर्ण विघ्नोंको उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जैसे सूर्य अन्धकारको ।" दसवीं शताब्दीसे हो बीचमें मंगल लिखने या करनेकी प्रथा समाप्त हो गयी थी । आचार्य विद्यानन्दने मंगलके प्रयोजनोंमें शिष्टाचार-परिपालन, नास्तिकतापरिहार और विघ्न- समाप्तिको गिनाया है । शिष्टाचार-परिपालनका अर्थ है १. देखिए वही : १ । १८ । २. देखिए वही : १।१९-२७, पृ० ३-४ । ३. देखिए वही : १२९ । ४. देखिए वही : ११३१ । ५. श्रीमविधानन्दि, आप्त- परीक्षा पं० दरबारीलाल कोठिया सम्पा दित, हिन्दी अनूदित वीरसेवा मन्दिर, सरसावा, दिस० १९४९, पृष्ठ १०-११ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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