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________________ जैन - भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि विद्यानन्दने भी आप्त- परीक्षा में 'मलं गालयति मंगलम् " स्वीकार किया है । महाकवि धनञ्जयने 'मं पापं गालयतीति मंगलम् " कहकर उपर्युक्तका ही समर्थन किया है । ५० 3 जैनाचार्योंने पापको ही मल माना है। आचार्य यतिवृषभने द्रव्य-मल और भावमल दोनों ही को पापरूप स्वीकार किया है, और उसे गलानेवालेको मंगल कहा है | आचार्य विद्यानन्दिने लिखा है, "श्रेयोमार्गको संसिद्धिमें विघ्न डालनेवाला पाप हो मल है । वह परमेष्ठीके गुण-स्तवन से गलता है, अतः उस स्तवनको मंगल कहते हैं ।" कवि धनञ्जयने तो पापको स्पष्ट ही मल स्वीकार किया है । मङ्गल शब्दकी दूसरी व्युत्पत्ति 'मंगं लातीति मंगलम् " के रूपमें प्रतिष्ठित है । मंगका अर्थ है सुख, और सुखको लानेवाला मंगल कहलाता है । आचार्य यतिवृषभने भी मंगको सुख ही कहा है, और उसे लानेवालेको मंगल स्वीकार किया है। उनका कथन है, "अहवा मंगं सोक्खं लादि हु गेहेदि मंगलं तम्हा,' ,६ जो सुखको लाता है, ग्रहण कराता है, वह मंगल है | मंगलके द्वारा आत्माका अर्थात् मल हट जाता है, और वह परम सुखका अनुभव करने लगती है । इस भाँति 'मलं गालयतीति मंगलम्' और 'मंगं लातीति मंगलम्' दोनों ही व्युत्पत्तियाँ समानार्थकी द्योतक हैं। १. आचार्य विद्यानन्दि, आप्तपरीक्षा : पं० दरबारीलाल कोठिया सम्पादितअनूदित, वीरसेवामन्दिर, सरसावा, सहारनपुर, १९४९, पृष्ठ ९ । २. महाकवि धनन्जय धनन्जयनाममाला : अमरकीर्त्तिके भाष्यसहित, पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २००७, १९८वाँ श्लोक, पृष्ठ ९१ । आचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णन्ति : प्रथम भाग, डॉ० ए० एन० उपाध्ये, डॉ० हीरालाल जैन सम्पादित, शोलापुर, १1१०-१४ । ४. मलं वा श्रेयोमार्गसंसिद्धौ विघ्ननिमित्तं पापं गाळयतीति मंगलं तदिति, तदेतदनुकूलं नः परमेष्ठिगुणस्तोत्रस्य परममङ्गलत्वप्रतिज्ञानात् । " आचार्य विद्यानन्दि, आप्तपरीक्षा : पं० दरबारीलाल सम्पादित, सहारनपुर, १९४९, पृष्ठ १० । सरसावा, ५. देखिए वही : पृ० ९ । ६. प्राचार्य यतिवृषम, तिलोयपण्णन्ति : प्रथम भाग, डॉ० ए० एन० उपाध्ये, डॉ० हीरालाल जैन सम्पादित, शोलापुर, ११५ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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