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________________ A २८ जैन - मक्तिकाव्य की पृष्ठभूमि सम्मानके द्वारा और सायंतन समय तेरे आचरणके कीर्तन द्वारा व्यतीत होवे ।" " हो सकता है कि आचार्य समन्तभद्रके ' त्रिसन्ध्यमभिवन्दी' का ही यह विस्तृत रूप हो । आचार्य वसुनन्दि [ १२वीं शताब्दी ] ने अपने प्रसिद्ध श्रावकाचार में पूजा और प्रतिष्ठाका वर्णन ११४ गाथाओंमें किया है । उन्होंने चार प्रकारके ध्यानोंको भाव- पूजा में शामिल कर लिया है।" २ इस भाँति आचार्य वसुनन्दिने यद्यपि द्रव्य - पूजनकी भी बात कही है, किन्तु भाव-पूजनमें ध्यानोंको शामिल कर, आचार्य समन्तभद्रकी सामायिकवाली पूजाका ही अनुकरण किया है। चेइयवंदण महाभासंके पृष्ठ ३६ से ३८ तक पूजनके भेद और पूजन विधानका विशद निरूपण हुआ है। पूजाके ग्रन्थ श्री जिनरत्न- कोशके पृष्ठ २५५पर पूजा से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंका संग्रह है । उनमें हरिभद्रसूरिकी पूजा - पञ्चाशिका, भद्रबाहुका पूजा-प्रकरण, आचार्य नेमिचन्द्रका पूजा-विधान, आचार्य जिनप्रभका पूजा-प्रकरण और उमास्वाति वाचकका पूजाविधि प्रकरण बहुत ही पुराने ग्रन्थ हैं । जयपुरके दिगम्बर जैन लूणकरजीके मन्दिर और दिगम्बर जैन तेरहपन्थियोंके मन्दिरमें पूजासम्बन्धी विपुल सामग्री हैं। वह राजस्थानके जैन - शास्त्र भण्डारोंको ग्रन्थसूची, द्वितीय भाग में क्रमश: पृष्ठ ५५ ७०, तथा ३०७-३१९ पर निबद्ध है । पाटण और आमेरके शास्त्रभण्डारोंमें भी पूजासम्बन्धी अनेक ग्रन्थ हैं, ऐसा उनकी प्रकाशित सूचियोंसे स्पष्ट हो है । २. स्तुति स्तोत्र जैन स्तुति की परिभाषा आराध्य के गुणोंकी प्रशंसा करना स्तुति है । लोकमें अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसाको ही स्तुति कहते हैं, किन्तु यह परिभाषा भगवान्पर घटित नहीं होती । १. प्रातर्विधिस्तव पदाम्बुजपूजनेन मध्याह्नसविधिरयं मुनिमाननेन । सायंतनोऽपि समय मम देव यायानित्यं त्वदाचरणकीर्त्तन कामितेन ॥ देखिए वसुनन्दि-श्रावकाचार : भूमिकामें 'श्रावकधर्मका विकास' पृ० ४९ । २. पिडत्थं च पयत्थं रूवत्थं रूववज्जियं श्रहवा । जं झाइज झाणं भावमहं तं विणिद्दिट्ठ ॥ ४५८ ॥ वसुनन्दि-श्रावकाचार : पृ० १३१ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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