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________________ । উলিঙ্কা বৰ विवेकसे चालित थी। दूसरी ओर सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनके बिना होता ही नहीं। सम्यग्दर्शन सुश्रद्धा है, ऐसा ऊपर लिखा जा चुका है। आचार्य कुन्दकुन्दने बोधपाहुडमें लिखा है, "ज्ञान आत्मामें विद्यमान है, किन्तु गुरुकी भक्ति करनेवाला भव्य पुरुष ही उसको प्राप्त कर पाता है।" उन्होंने हो एक-दूसरे स्थानपर भगवान् जिनेन्द्रसे बोधि अर्थात् ज्ञान देनेकी प्रार्थना की है। आचार्य समन्तभद्रने भी स्तुति-विद्यामें लिखा है, "जिस प्रकार पारस पत्थरके स्पर्शसे लोहा स्वर्णरूप हो जाता है, उसी प्रकार भगवान्की भक्तिसे सामान्यज्ञान केवलज्ञान हो जाता है।" आचार्य पूज्यपादने श्रुतभक्तिमें पांचों प्रकारके ज्ञान और ज्ञानवानोंको भक्ति इसीलिए की है कि उससे अतीन्द्रिय निर्मल ज्ञान प्राप्त होता है। मोक्ष देनेवाला ज्ञान, ज्ञानवानोंकी भक्तिसे मिलता है, किन्तु उसी भक्तिसे जो ज्ञानपूर्वक की गयी हो । इसी भांति जैनाचार्योंने ज्ञान और भक्तिको एक दूसरेके लिए अनिवार्य बताते हुए समान घोषित किया है। ज्ञान और भक्ति दोनों ही का लक्ष्य एक है-मोक्ष प्राप्त करना । स्वात्मोपलब्धिका नाम ही मोक्ष है । वह आत्मा, जो अष्टकर्मोके मलीमससे छुटकर विशुद्ध १. गाणं पुरिसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो वि विणयसंजुत्तो। णाणेण लहदि लक्खं लक्खंतो मोक्खमग्गस्स ॥ आचार्य कुन्दकुन्द, षट्पाहुड : श्री पाटनी दि० जैन ग्रन्थमाला, मारोठ, [मारवाड़], बोधपाहुड : २२वीं गाथा । २. इम घाइकम्म मुक्को अट्ठारहदोसवजियो सयलो। तिहुवण भवण पदीवो देऊ मम उत्तमं बोहिं ॥ देखिए वही, मावपाहुड : ५५२वीं गाथा । ३. रुचं बिमति ना धीरं नाथातिस्पष्टवेदनः । वचस्ते भजनात्सारं यथायः स्पर्शवेदिनः ॥ आचार्य समन्तभद्र, स्तुतिविद्या : पं० जुगलकिशोर सम्पादित, हिन्दीअनूदित, बीरसेवामन्दिर, सरसावा, वि. सं. २००७, ६०वाँ श्लोक, पृ०७०। ४. एवमभिष्टुवतो मे ज्ञानानि समस्तलोकचक्षूषि। लघु भवताज्ज्ञानर्द्धि ज्ञानफलं सौख्यमध्यवनम् ॥ भाचार्य पूज्यपाद, श्रुतमक्ति : दशभक्त्यादि संग्रह : श्री सिद्धसेन गोयलीय सम्पादित, सलाल [साबरकांठा], गुजरात, ३०वाँ श्लोक, पृ० १३७.
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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