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________________ जैन- भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि 3 जिनेन्द्र के चरणकमल-युगलकी स्तुतिको एक ऐसी नदी माना है, जिसके शीतलजलसे कालोदग्रदावानल उपशम हो जाता है, अर्थात् मोक्ष मिलता है । ' इसी भक्ति के एक दूसरे श्लोक में भगवान्‌के चरणोंकी स्तुतिसे मोक्ष-सुख पाने की बात लिखी है । समाधि भक्ति में तो उन्होंने स्पष्ट ही कहा है, "भगवान् जिनेन्द्रकी एकाकी भक्ति हो समस्त दुर्गतियोंको दूर करने, पुण्योंको पूर्ण करने और मोक्षलक्ष्मीको देनेके लिए समर्थ है । श्री शिवार्यकोटिने भगवती आराधनामें लिखा है, "जैसे अरहन्त भक्ति कूं कल्याणकारिणी कही; तैसें सिद्ध भगवान्में तथा अरहन्तके प्रतिबिम्बमें तथा सर्व जीवनका उपकारक स्याद्वाद रूप जिनेन्द्रका परमागम में तथा आचार्य उपाध्यायनिमें तथा सर्वसाधुनिमें तीव्र भक्ति है, सो संसारको छेदनेमें समर्थ है ।"" एक दूसरे स्थानपर उन्होंने कहा है, " एक ही सो जिनेन्द्र भगवान्‌को भक्ति दुर्गति निवारण करने कूं समर्थ है ।" " भक्ति और ज्ञानका सम्बन्ध १६ भक्ति और ज्ञानमें अविनाभावी सम्बन्ध है । ज्ञानके बिना भक्ति अन्ध भक्ति है | आचार्य समन्तभद्र ज्ञानपूर्वक ही भगवान् जिनेन्द्रके भक्त बने थे । उनको भक्तिमें कुल परम्परा, रूढिपालन और कृत्रिमता जैसी कोई बात नहीं थी । वह शुद्ध 1 १. को वा प्रस्खलतीह केन विधिना कालोप्रदावानला न स्याच्चेत्तव पादपद्मयुगल स्तुत्यापगावारणम् ॥ देखिए वही, शान्तिभक्ति : चौथा श्लोक, पृ०१७६. २. अन्याबाधमचिन्त्यसारमतुलं त्यक्तोपमं शाश्वतं सौख्यं त्वच्चरणारविन्दयुगलस्तुत्यैव संप्राप्यते ॥ देखिए वही, शान्तिभक्ति, छठा श्लोक, पृ० १७७ । ३. एकापि समर्थेयं जिनभक्तिदुर्गतिं निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥ देखिए वही, समाधिमक्ति : आठवाँ श्लोक, पृ० १८५ । ४. तह सिद्धचे दिए पवयणे य आयरियसम्वसाधूसु । मत्ती होदि समस्या संसारुच्छेदणे तिब्वा ॥ श्री शिवार्यकोटि, भगवती आराधना मुनि श्री अनन्तकीर्त्ति ग्रन्थमाला, अष्टम पुष्प, पं० सदासुखलालजी भाषा वचनिका सहित, हीराबाग, बम्बई, वि० सं० १९८९, पृ० ३०२, ७५१वीं गाथा । ५. एया वि सा समत्था जिणमतो दुग्गइं निवारेतुं । पुष्णाणि य पूरे आसिद्धि परंपर सुहाणं ॥ देखिए वही, ७५०वीं गाथा, पृ० ३०२ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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