SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बाराध्य देवियाँ धीदायिनि नमस्तुभ्यं ज्ञानरूपे ! नमोऽस्तुते। सुरार्चिते ! नमस्तुभ्यं भुवनेश्वरि ! ते नमः ॥९॥ कृपावति ! नमस्तुभ्यं यशोदायिनि ! ते नमः। सुखप्रदे ! नमस्तुभ्यं नमः सौभाग्यवर्द्धिनि ॥ १० ॥ ७. देवी कुरुकुल्ला कुरुकुल्लाकी कथा उपदेश सप्ततिकामें कुरुकुल्लासे सम्बन्धित एक कथा उपन्यस्त हुई है, जो इस प्रकार है, भृगुकच्छमें श्रीदेवसूरिके पास एक कान्हड़ नामका योगी ८४ सर्पोकी पिटारी लेकर आया और सूरिजीसे कहा कि मेरे साथ विवाद करो, अथवा सिंहासन छोड़ो। गुरुने कहा कि किसके साथ ? उसने उत्तर दिया कि मेरे पास सर्प है। प्रभुने आसनके ऊपर बैठे-बैठे ही खड़ियासे सात रेखाएँ खींच दी। योगीने अपने भयंकरसे-भयंकर सोको छोड़ा किन्तु कोई भी, छठी रेखाको पार न कर सका। अन्त में उसने 'सिन्दूरक' नामके सर्पको सामना करनेके लिए मुक्त किया। सिन्दूरक को दूसरा यमराज हो समझना चाहिए। उसने जिह्वासे रेखाओंको भग्न कर दिया और सिंहासनके पायोंपर चढ़ना आरम्भ किया। गुरु ध्यानस्थ हो गये। भक्तजन हाहाकार करने लगे। इसी मध्य किसीने योगीके दो सर्पोको उड़ा दिया। ऐसा देखकर योगी दीनवदन हो गया। उसने गुरुके चरणों में प्रणाम कर कहा कि हे प्रभो! सर्प ही मेरा जीवन है, बतलाइए मेरे सर्प कहां गये ? प्रभुने कहा, वे तो नर्मदाके किनारे कोड़ा कर रहे हैं । रात्रिमें गुरुके पास कुरुकुल्ला देवी आकर बोलो, मुझे पहचानो। गुरुने उत्तर दिया, तुम कुरुकुल्ला हो । देवीने कहा, "मैंने ही सोको विलीन किया था। मैंने चार मास तक सामनेके वटवृक्षपर आरूढ़ होकर आपका व्याख्यान सुना है । इस उपलक्ष्यमें मैंने सोचा कि योगीके पिटारेको साँसे रिक्त ही कर देंगी, किन्तु जन-कौतुकके लिए मैंने ऐसा नहीं किया।" गुरुने देवीकी स्तुतिमें एक काव्य पढ़ा, जिसे सुनकर देवीने कहा, "इसे तो भाण्डागारमें रखें, किन्तु प्रातः ही इस शालाके द्वारपर मेरी स्तुतिमें लिखे हुए तीन काव्य मिलेंगे। जो कोई उन्हें पढ़ेगा वह कभी भी सर्पोपद्रबसे प्रपीड़ित नहीं होगा।" १. देवी स्तोत्रम् : देखिए वही : परिशिष्ट १५, पृ० ८२। । २. श्रीमत्सोधर्मगणि, उपदेशसप्ततिका : आरासणतीर्थवृत्तान्त : पारमानन्द - सभा, भावनगर, पृष्ठ ३८ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy