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________________ जैन-भक्तिकाम्बकी पृभूमि थी. ऐसा जैन पुराणोंसे सिद्ध है। मध्यकालके चामुण्डराय अपनी माताको पोदनपुरके बाहुबलिके दर्शन कराने चले, तो विदित हुआ कि न पोदनपुर है और न वह मूर्ति । उन्होंने श्रवणबेल्गोलमें बावन फीट ऊँची एक दूसरी मूत्तिका निर्माण करवाया । आज भी वह मूत्ति कालके कराल थपेड़ोंको सहकर खड़ी है। झांसीकी रानीसे हारकर भागता हुआ एक अंगरेज जब उस मूत्तिके सामनेसे गुज़रा, तो मौतका भय भूलकर, भौचक-सा खड़ा रह गया। उसने ऐसी मूत्ति पश्चिमी देशों और समूचे भारतमें कहीं नहीं देखी थी। मथुराकी कंकाली टोलेकी खुदाइयोंमें, जिस जैन मन्दिरके अवशेष मिले हैं, वह ईसासे १५० वर्ष पूर्व बना था। उसके खण्डहरोंसे स्पष्ट विदित होता है कि वह अपने युगमें सौन्दर्यका प्रतिष्ठान रहा होगा। आबूके जैन मन्दिर ऐसे नयनाभिराम है कि उन्हें देखने के लिए केवल जैनभक्त ही नहीं, सभी जातियों और देशोंके लोग लालायित रहते हैं । राजस्थान तो जैनपुरातत्त्वका प्रतीक ही है। उसके पद-पद पर जैन मन्दिरों और मूत्तियोंका सौन्दर्य बिखरा पड़ा है। यदि उन्हें समेट लिया जाये तो जैसे वह निष्प्राण ही रह जायगा। उसकी शुष्क धराको जैन कलाकारोंने सुन्दर पुष्पोंसे गंथा था। वे अमर चिह्न अपनी सुगन्धि विकोण करते आज भी जीवित हैं। राजस्थान जैन चित्रकलाका भी केन्द्र रहा है। मन्दिरोंकी भित्तियों, वस्त्रों और ताड़पत्रोंपर सूक्ष्म भावोंको उकेरा गया है। उससे सिद्ध है कि जैन चित्रकार उत्तम चितेरे थे। आध्यात्मिक भावोंको चित्रोंमें, स्वाभाविक ढंगसे प्रस्तुत करना आसान नहीं है । समूचे रूपमें यह कहा जा सकता है कि जैन पुरातत्त्वमें तीर्थङ्करोंकी, शासनदेवियोंकी और देवोंकी ही मूत्तियां अधिक हैं। उन्हींसे सम्बन्धित मन्दिर और चित्र हैं। भगवान् हैं और उनके भक्त हैं। उनकी भक्तिसे सम्बद्ध महोत्सव, पूजा, उपासना-वन्दनाके 'एकतें एक आगर' दृश्य हैं। सब कुछ भक्तिमय है। फिर यह कहना, "जैन धर्म ज्ञानप्रधान है, उसमें भक्तिको स्थान नहीं," कहां तक उपयुक्त है, पाठक स्वयं सोचें। .. यह ग्रन्थ मेरे शोधनिबन्ध 'हिन्दोके भक्ति-काव्यमें जैन साहित्यकारोंका योगदान'का पहला खण्ड है। हिन्दीके जैन-भक्तकवियों और उनके काव्यको खोज करते हुए, ऐसा स्पष्ट आभासित हुआ कि, उनपर उन्हींको पूर्वगामी परम्पराका प्रभाव है। उसका अनुशीलन करनेसे यह ग्रन्थ तैयार हुआ। इसकी एक-एक पंक्तिको पढ़कर डॉ० वासुदेवशरण अग्रवालने मुझे, जिस स्नेहसे मार्ग दिखलाया, वह भुलाने की बात नहीं है। यहां यदि आभार-प्रदर्शन किया जाये, तो उनके स्नेहको गौण करना होगा। यदि चुप रहूँ तो कृतघ्नता होगी। अतः अपने उस
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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