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________________ राज्य देवियाँ 'देवी जब हँसती है तो उसके दाँतोंकी सफ़ेदी चारों ओर फैल जाती है. । देवीके शरीरका रंग भी क्षीरसागरकी भाँति श्वेत है । कर्णान्तचारी नेत्र कमल- जैसी सुषमासे ओत-प्रोत हैं । वह ऐसी सुषमा है, जिसके समक्ष पाप स्वयं गल जाते हैं । देवी अमृतका झरना है, जिसमें स्नान कर उसप्त संसारको स्थायी शीतलता प्राप्त होती है। देवी में सत्त्वमात्रको पुष्ट करनेके बोंज संन्नि'हित हैं, किन्तु ये बोज 'प्रलय-विष' में सुरक्षित रहते हैं । मोतमें हो जन्मके बोज मिले रहते हैं । मौत समाप्ति नहीं, किन्तु एक नया निर्माण है। देवीका उपर्युक्त आश्चर्य इसी तथ्यका उद्घाटन करता है । २ जिनदत्त सूरि ( वि० सं० १२वीं शताब्दी ) ने एक चक्रेश्वरी स्तोत्रको रचना. की थी। उसकी भाषा संस्कृत है और भाव सरस । यह स्तोत्र भैरव- पद्मावतीकल्प ( अहमदाबाद ) के परिशिष्ट में प्रकाशित हुआ है । उसमें केवल दस श्लोक हैं । एक स्थानपर सूरिजीने कहा, "हे देवी चक्रेश्वरी ! तुम चन्द्रमण्डलकी भाँति अन्धकारके समूहको ध्वस्त कर देती हो । भव्य प्राणीरूपी चकोरोंके सन्तापको दूर कर आनन्द प्रदान करती हो। सम्यग्दृष्टियोंको उत्तम सम्पत्ति देकर सुखी बनाती हो। तुम्हारे मुखका सौन्दर्य जीव मात्रके मनको प्रसन्न बनानेवाला है । دور श्री जिनप्रभसूरिने 'विविध तीर्थकल्प' में कुल्यपाकस्थ ऋषभदेवकी स्तुति को है, उसके अन्तिम श्लोक में, देवी चक्रेश्वरीसे कल्याणकी याचना की गयी है। सूरिजीने कहा, "जो देवी गरुड़पर आरूढ़ हो संसारमें विचरण करती है, जो भगवान् ऋषभदेवरूपी रसाल वनको कोयल है, सुन्दर चक्रको धारण करनेसे, जिसके हाथ सदैव सुशोभित होते रहते हैं और जिसके शरीरकी १. जैन - स्तोत्रसमुच्चय : बम्बई, पाँचवाँ श्लोक, पृ० १४२ । २. अगरचन्द नाहटा, युगप्रधान श्रीजिनदन्तसूरि : पृ० ५८ । ३. श्रीचक्रेश्वरि चन्द्रमण्डलमिव ध्वस्तान्धकारोस्करं भम्यप्राणिकोरचुम्बितकरं संतापसंपद्धरम् । सम्यग्दष्टिसुखप्रदं सुविशदं कान्स्यास्पदं संपदां पात्रं जीवमनःप्रसादजनकं भाति त्वदीयं मुखम् ॥ २ ॥ जिनदत्तसूरि, चक्रेश्वरीस्तोत्रम् : भैरवपद्मावती कल्प: अहमदाबाद, परिशिष्ट २२, ०९७ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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