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________________ RANILawRAM. N EL RatiPriciner-.. -m easuresmamt.resea -i - ": १५८ जैन-भक्तिकाम्यकी पृष्ठभूमि गोदमें लिये बैठी है । दाहिनी भुजा खण्डित है। बायीं भुजामें पुत्र है । सिंहासनके नीचे सिंह बना है । उसके दोनों ओर सात मुसाहिब है, दो उड़ते हुए और पांच खड़े हुए। पीछे एक बड़ा वृक्ष है। यहाँके रहनेवाले इसे संकटा देवी कहते हैं।' किन्तु उसके वर्णनसे स्पष्ट है कि मूत्ति श्रीअम्बिकादेवीकी है। पूनाकी रिपोर्टसे विदित है कि टन्कईमें ब्राह्मण और जैन गुफाएं हैं, यहां एक अम्बादेवीको मूर्तिको हिन्दू बना लिया गया है। भद्रेश्वरपर अम्बाजीका एक मन्दिर है, जिसमें हिन्दू, पारसी और जैन सभी अपने बच्चोंका मुण्डन संस्कार करवाते हैं। अम्बिका-भक्ति ___ जैन-शासनको समृद्धिके लिए अम्बिकाने सदैव योग दिया है। एक बार सुश्रावक परमाहत श्री नागदेव, 'युग-प्रधान' पदके लिए एक योग्य व्यक्तिको खोज लेना चाहते थे। इसलिए उन्होंने ऊर्जयन्तपर जाकर तप किया। तीन दिनके उपवासके उपरान्त अम्बिकाने प्रकट होकर उन्हें श्री जिनदत्तसूरिका नाम बतलाया। आनेवाले समयमें सूरिजी अद्वितीय प्रमाणित हुए। देवीकी कृपासे ही उस समयका युग सच्चे युग-प्रधानको पा सका। देवीके इसी गुणपर विमुग्ध हो भक्तोंने भी उन्हें तीर्थकरके समान ही पूजा, स्तुति की, मूत्तियाँ बनवायीं और उनके मन्दिर-चैत्योंकी स्थापना की। एक भक्त देवीके चरणोंमें झुका हुआ तीनों लोकोंके पापोंको नष्ट करनेको प्रार्थना करता है, “हे अम्बिका ! तुम ह्रींके द्वारा बड़े-बड़े विघ्नोंके समूहोंको नष्ट करती हो, दुष्टोंके मन्त्र, विद्या और बलको मूलसे काट देती हो, और एक हाथ, में सहकार-लुम्बिकाको धारण करनेवाली हो। हे देवि ! मैं आपसे संसारके पापों. को दूर करनेकी प्रार्थना करता हूँ।" ___ देवी अम्बिकामें उदारताको कमी नहीं है। वह भक्त-वत्सला है, उसके १. देखिए 'संयुक्त प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक' : पृ० ५९-६० । . Progress report of the archaeological Survey of Western India, Poona, p. 1912, 57-58. ३. देखिए वही : Simla and Poona, 1906. p. 38-55. ४. अगरचन्द नाहटा, युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि पृ० ५३ । ५. ही महाविघ्नसहातनिर्णाशिनी दुष्टपरमन्त्रविद्याबलच्छेदिनी । हस्तविन्यस्तसहकारफललुम्बिका, हरतु दुरितानि देवो ! अगत्यग्विका । जिनेश्वर सूरि ( १२वीं शताब्दी), अम्बिकादेवी-स्तुति : वाँ श्लोक, मैरव-पद्मावती-कल्प : अहमदाबाद, परिशिष्ट २१, पृ० ९६ । 23RMAAMIR-*-in-...-------
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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