SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-भक्तिके भेद ११९ रोग, पाप और व्याधियाँ उपशम हो जाती हैं और सौभाग्यका उदय होता है । ९. समाधि - भक्ति 'समाधि' शब्द की व्युत्पत्ति 3,, समाधीयते इति समाधिः । समाधीयतेका अर्थ है, "सम्यगाधीयते एकाग्रीक्रियने विक्षेपान् परिहृत्य मनो यत्र स समाधिः । २ अर्थात् विक्षेपोंको छोड़कर मन जहाँ एकाग्र होता है; वह समाधि कहलाती है । विशुद्धिमग्ग में समाधानको हो समाधि माना है, और समाधानका अर्थ किया है, “एकारम्मणे चित्तचेतसिकानं समं सम्मा च आधानं ” अर्थात् एक आलम्बनमें चित्त और चित्तकी वृत्तियों का समान और सम्यक् आधान करना ही समाधान है। जैनोंके अनेकार्थ निघण्टु में भी 'चेतसश्च समाधानं समाधिरिति गद्यते', कहकर चित्तके समाधानको ही समाधि कहा है | 'सम्यक् आधीयते' और 'सम्यक् आधानं' में प्रयोगको भिन्नता के अतिरिक्त कोई भेद नहीं है । दोनों एक ही धातुसे बने हैं; और दोनोंका एक ही अर्थ है । चित्तका एक आलम्बन अथवा ध्येय में सम्यक् प्रकारसे स्थित होना दोनों ही व्युत्पत्तियों में अभीष्ट है । समाधिके भेद समाधि दो प्रकार की होती है-सविकल्पक और निर्विकल्पक | 'सविकल्पक' में मनको पंचपरमेष्ठी, अरहंत और ओंकारादि मंत्रवर टिकाना होता है ।" 'निर्विकल्पक' में 'रूपातीत' अर्थात् सिद्ध अथवा शुद्ध आत्मापर केन्द्रित करना पड़ता है । Σ १. शमयति दुरितश्रेणिं दमयत्यरिसन्ततिं सततमसौ । पुष्णाति भाग्यनिचयं मुष्णाति व्याधिसम्बाधाम् ॥ श्री सागरचन्दसूरि, मन्त्राधिराजकहर : श्री जैनस्तोत्र संदोह : भाग २, अहमदाबाद, सन् १९३६, श्लो० ३३, पृ० २७७ । २. तुलना -- पातन्जलि योगसूत्र : व्यासभाष्य, मेजर बी० डी० वसु सम्पादित, इलाहाबाद, १९२४ ई०, १।३२ का व्यासभाष्य । ३. आचार्य बुद्ध घोष, विसुद्विमग्ग : कौसाम्बोजीकी दीपिकाके साथ, बनारस, ततियो परिच्छेदो, पृष्ठ ५७ । ४. देखिए, धनन्जयनाममाला सभाप्य : श्लो० १२४, पृष्ठ १०५ । ५. योगीन्दु, परमात्मप्रकाश : १६२वें दोहेका हिन्दी अनुवाद, पृष्ठ ३०६ ॥ ६. तच्च ध्यानं वस्तुवृत्त्या शुद्धात्मसम्यकश्रद्धानज्ञानानुष्टानरूपाभेदरत्नत्रया
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy